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________________ मोक्ष सुख का वर्णन 255 रह जाते हैं तथा काष्ठ की गणगौर के प्रदेश स्थानान्तरित हो जाते हैं। आकाश के प्रदेशों से कुछ भी लगे नहीं रहते, भिन्न-भिन्न स्वभाव रूप थे अतः भिन्न-भिन्न हो गये। इसीप्रकार मैं भी क्षेत्र की अपेक्षा शरीर से एकाकार क्षेत्रावगाह होकर सम्मिलित स्थित हूँ, लेकिन स्वभाव की अपेक्षा मेरे रूप अलग हैं। वह (शरीर) तो प्रति समय जड-अचेतन, मूर्तिक, गलने पूरने के स्वभाव को लिये परिणमित होता है तथा यह जो मैं हूँ वह शरीर से भिन्न होते प्रत्यक्ष ही अलग होता हूँ। इस शरीर का तथा मेरा भिन्नपना कैसे है ? इसके द्रव्य-गुण-पर्याय अलग तथा मेरे द्रव्य-गुण-पर्याय अलग हैं। इसके प्रदेश अलग तथा मेरे प्रदेश अलग हैं, इसका स्वभाव अलग तथा मेरा अलग है / कुछ पुद्गल द्रव्य से तो बार-बार भिन्नपना, अलगपना हुआ पर शेष चार द्रव्यों से अथवा अन्य जीव द्रव्य से तो भिन्नपना हुआ नहीं। उसका उत्तर - ये चार द्रव्य (धर्म, अधर्म, आकाश, काल ) तो अनादि काल से अपने स्थान पर अकंप (बिना जरा भी हिले डुले अर्थात इधर-उधर हुये) स्थित हैं तथा अन्य जीव द्रव्यों का संयोग प्रत्यक्ष ही अलग है, अत: उनसे क्या भिन्नपना करना ? एक पुदगल द्रव्य से ही उलझन है, अत: उस ही से अपने को भिन्न करना उचित है / बहुत विकल्पों से क्या प्रयोजन ? जानने वाले थोडे ही में जान लेते (समझ लेते) हैं तथा न समझने वालों को बहुत कहने पर भी नहीं समझते, जानते / इससे यह सिद्ध होता है कि यह भिन्नता युक्ति के द्वारा ही साध्य हैं, बल से साध्य नहीं है। इन्द्रियों और मन के द्वार से जानपना :- यह आत्मा शरीर में रहते इन्द्रियों के द्वारा तथा मन के द्वारा कैसे जाना जाता है ? वह ही कहते हैं - जैसे एक राजा को किसी एक पुत्र ने महा श्वेत (स्वच्छ) बडे शिखर (भवन) में बंदी बना दिया। उस भवन के पांच झरोखे हैं तथा बीच में एक सिंहासन रखा है। वे झरोखे तथा सिंहासन कैसे हैं ? उन झरोखों में
SR No.032848
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaimalla Bramhachari
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2010
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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