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________________ 254 ज्ञानानन्द श्रावकाचार जो कुछ किया वह मोह का स्वभाव था, मेरा स्वभाव नहीं था। मेरा स्वभाव तो एक टंकोत्कीर्ण ज्ञायक, चैतन्य लक्षण वाला तथा सर्व तत्वों को जानने वाला है, निज परिणति में रमने वाला है, शिव स्थान (मोक्ष) में बसाने वाला है, संसार समुद्र से तारने वाला है, राग-द्वेष को हरने वाला है, स्वरस को पीने वाला है, ज्ञान का पान करने वाला है। निराबाध, निगम, निरंजन, निराकार, अभोक्त अथवा ज्ञान रस का भोक्ता, पर-स्वभाव का अकर्ता, निजस्वभाव का कर्ता, शाश्वत, अविनाशी, शरीर से भिन्न, अमूर्तिक, निर्मल पिंड, पुरुषाकार, ऐसा देवाधिदेव मैं स्वयं ही हूं, ऐसा जाना है / उसकी (मेरे निज स्वरूप की) निरन्तर सेवा, अवलोकन करता हूं, उसका अवलोकन करते शांति सुधामृत की छटा उछलती है, आनन्द की धारा झरती है / (मैं) उसका रस पान कर अमर होना चाहता हूं / ऐसा मेरे यह स्वरूप जयवंत प्रवर्ते, इसका अवलोकन व ध्यान जयवंत प्रवर्ते तथा इसका विचार. जयवंत प्रवर्ते / क्षणमात्र भी इसमें अन्तर न पडे / इस स्वरूप की प्राप्ति के बिना मैं कैसे सुखी होऊंगा, कभी नहीं हो सकता। मैं और कैसा हूं ? जैसे काष्ठ की गणगौर को आकाश में स्थापित करें तो स्थापित प्रमाण आकाश तो उसके प्रदेशों में प्रविष्ठ हो जाता है तथा काष्ठ की गणगौर के प्रदेश आकाश में प्रविष्ठ हो जाते हैं। इसप्रकार क्षेत्र की अपेक्षा सम्मिलित एकाकार होकर स्थित रहते हैं तथा प्रति समय सम्मिलित ही परिणमते हैं, लेकिन स्वभाव की अपेक्षा भिन्न-भिन्न स्वभावों को लिये स्थित रहते हैं तथा भिन्न-भिन्न ही परिणमते हैं। सो कैसे ? ___ आकाश तो प्रति समय अपने निर्मल अमूर्तिक स्वभाव रूप परिणमता है तथा काष्ठ की गणगौर प्रति समय अपने जड, अचेतन स्वभाव रूप परिणमती है / यदि काष्ठ की गणगौर को उन आकाश के प्रदेशों से उठा कर दूर स्थापित करें तो उस स्थान के आकाश के प्रदेश तो वहीं के वहीं
SR No.032848
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaimalla Bramhachari
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2010
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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