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________________ वंदनाधिकार नहीं हैं / कैसी स्थिति है ? नासाग्र दृष्टि धारण करके अपने स्वरूप को देखते हैं / जिसप्रकार गाय बछडे को देख-देख कर तृप्त नहीं होती है, निरन्तर गाय के हृदय में बछडा ही निवास करता है, उसीप्रकार शुद्धोपयोगी मुनि अपने स्वरूप को क्षण मात्र के लिये भी नहीं भूलते हैं / गाय-बछडे के समान निज-स्वभाव से वात्सल्य किये हैं, अथवा जो अनादिकाल से (उनका) अपना स्वरूप खोया हुआ है उसे ढूंढते हैं अथवा ध्यान अग्नि के द्वारा कर्म-ईंधन को अभ्यन्तर गुप्त रूप से जलाते हैं / ___नगर आदि को छोडकर वन में जाकर नासाग्र दृष्टि धारण कर ज्ञान सरोवर में बैठ सुधा अमृत का पान करते हैं, अथवा सुधा-अमृत में केली करते है, ज्ञान समुद्र में डूब गये हैं। संसार के भय से डरकर अभ्यन्तर में अमूर्तिक पुरुषाकार ज्ञानमयमूर्ति चैतन्य देव का सेवन करते हैं अथवा सब अशरण जानकर चैतन्य देव की शरण को प्राप्त हुये हैं / ऐसा विचारते हैं - भाई ! मुझे तो एक चैतन्य धातुमय ज्ञायक महिमा धारण किये पुरुष अर्थात परमदेव ही शरण हैं, अन्य शरण नहीं हैं, ऐसा मेरा नि:संदेह श्रद्धान है। देव-पूजा (मुनि द्वारा भाव पूजा) पश्चात सुधामृत से चैतन्य देव के कर्म-कलंक को धोकर स्नपन अर्थात प्रक्षालन करते हैं, फिर मग्न होकर उनके सन्मुख ज्ञान-धारा का क्षेपण करते हैं / फिर निज-स्वभाव रूपी चन्दन से उनकी चर्चा अर्थात पूजा करते हैं / अनन्त गुण रूपी अक्षतों को उनके आगे क्षेपण करते हैं / फिर सुमन अर्थात भले मन रूपी आठ पंखुड़ियों से संयुक्त पद्म (कमल) पुष्प को उनके आगे चढाते हैं तथा ध्यान रूपी नैवेद्य उनके सम्मुख करते हैं / ज्ञान रूपी दीप को उनके सन्मुख प्रकाशित करते हैं, मानो ज्ञान दीप से चैतन्य देव (स्वयं के आत्म) स्वरूप का अवलोकन करते हैं / फिर ध्यान
SR No.032848
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaimalla Bramhachari
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2010
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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