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________________ 219 स्वर्ग का वर्णन हे भगवान ! मेरे पूर्व भव तथा अगले भव कहें, मेरा कितना संसार बाकी है, कब दीक्षा धारण करूंगा तथा आप जैसा कब बनूंगा, मुझे यर्थाथ स्वरूप कहें ? मुझे इनको जानने की बहुत इच्छा अभिलाषा है ? ऐसे प्रश्न होने पर श्री भगवान की वाणी खिरने लगी तथा सर्व प्रश्नों के उत्तर (समाधान) एक साथ ज्ञान में भासित हुये जिन्हें सुनकर अत्यन्त तृप्त होकर अपने स्वर्ग के स्थान में चला जाता है। फिर कभी नन्दीश्वर द्वीप जाकर वहां के चैत्यालयों तथा प्रतिमाजी की पूजा करता है, कभी अनेक प्रकार के भोगों को भोगता है। कभी सभा में सिंहासन पर बैठकर राजकार्य करता है तो कभी धर्म की चर्चा करता है। कभी चारों अथवा सात जातियों की सेना सजाकर भगवान के पंच कल्याणक में जाता है अथवा वनों में अथवा मध्यलोक में क्रीडा करने __ वहां ऐसे नाटक होते हैं - कभी देवांगना देव के अंगूठे पर नृत्य करती है, कभी हथेली पर नृत्य करती है, कभी भुजा पर नृत्य करती है, कभी आंख की भौहों पर नृत्य करती है / कभी देवांगना आकाश में उछल जाती है, कभी धरती में डूब जाती है, कभी अनेक अनेक शरीर बना लेती है, कभी बालक हो जाती है, कभी देव की स्तुति करती है। क्या स्तुति करती है ? - हे देव ! आपको देखने से नेत्र तृप्त नहीं होते। हे देव ! आपके गुण चिन्तवन करने से मन तृप्त नही होता / हे देव ! आपके संयोग में कभी अन्तर न पडे, आपकी सेवा जयवन्त वर्ते / आप महान कल्याण के कर्ता हैं, आप जयवन्त वर्ते / आप हमारी मनोवांछा पूर्ण करें। देवांगना और देव और कैसे हैं ? उनको नेत्र टिमकारना नहीं होता, शरीर की छाया नहीं पडती, क्षुधा नहीं लगती, प्यास नहीं लगती / हजारों वर्षो बाद किंचित मात्र क्षुधा-तृषा लगती है जो मन से ही तृप्त हो जाती है / कोई देव मंद सुगंधित पवन चलाता है, कोई देव वाध्य यंत्र बजाता है, कोई देव सुगंधित जल बरसाता है, कोई इन्द्र पर चंवर ढोरता है। चवर
SR No.032848
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaimalla Bramhachari
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2010
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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