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________________ सामायिक का स्वरूप 197 तो उस जीव का अस्तित्व ज्यों का त्यों है, अत: उस (जिस क्षेत्र को छोडा है) को उस पुरुष का क्षेत्र तो माना नहीं जा सकता तथा जिस क्षेत्र को जा प्राप्त हुआ, वहां उसका उत्पाद नहीं कहा जा सकता, केवल पर्याय का पलटना ही है / पिछले क्षेत्र में तो बालक था इस क्षेत्र में वृद्ध हुआ अथवा पूर्व में दु:खी था अब सुखी हुआ अथवा पूर्व में सुखी था अब दुःखी हुआ। इसप्रकार परभव की पर्याय का स्वरूप जानना / पहले मनुष्य क्षेत्र में था फिर नरक की दु:खदायी पर्याय हो गयी अथवा पूर्व में मनुष्य भव में दुःखी था अब देव पर्याय में सुखी हुआ / इसप्रकार भवभव में अनेक पर्यायों की परिणति जानना / जीव तो सदा शाश्वत है, अतः हे जीव! ये पाप कार्य छोडे तो भला है / इसप्रकार पश्चाताप करता हुआ दोनों हाथ जोडकर मस्तक से लगाकर श्रीजी को परोक्ष नमस्कार कर इसप्रकार प्रार्थना करता है। सामायिक में भगवान से प्रार्थना :- हे भगवान ! मेरे ये पाप निर्वत करें, आप परम दयालु हैं, अत: मेरे अवगुणों पर ध्यान नहीं दें, मुझे दीन, अनाथ जानकर क्षमा करें तथा मेरा जिसप्रकार भी हो सके भला ही करें / हे जिनेन्द्र देव ! मेरे पर अनुग्रह करें, पाप-मल को दूर करें / आपके अनुग्रह बिना पाप-पर्वत नष्ट नहीं होगा, मुझ पर विशेष कृपादृष्टि कर मेरे समस्त पापों का क्षय करें / इसप्रकार पूर्व के पापों को हल्का कर, जीर्ण कर द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव (जिनका स्वरूप पहले कह चुके हैं) बांध कर, उस अनुसार उन्हें प्रतिज्ञा पूर्वक त्याग कर पूर्व दिशा में अथवा उत्तर दिशा में मुख कर पीछी से भूमि का शोधन कर पंच परम गुरु को नमस्कार कर पद्मासन अथवा पालथी मांड कर बैठ जावें। पश्चात् तत्त्वों का चिन्तवन करें, आपा-पर (स्व-पर) का भेद विज्ञान करे, निज स्वरूप का भेदरूप अथवा अभेद रूप अनुभवन करें, अथवा संसार का स्वरूप दु:ख रूप है ऐसा विचार करें। संसार से भयभीत होकर बहुत वैराग्य दशा आदरे तथा मोक्ष के उपाय का चिन्तवन करें। संसार के दु:खों से निर्वृत्ति
SR No.032848
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaimalla Bramhachari
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2010
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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