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________________ 196 ज्ञानानन्द श्रावकाचार अन्य कुछ न पढ़ें। सामायिक विशेष विनय पूर्वक करे / आगे भी सामायिक करने का उत्साह बना रहे, सामायिक करने के बाद पछतावा न हो कि दो, चार, घडी का काल निरर्थक गया, इसमें कोई दो, चार घर गृहस्थापना (गृहस्थीपने) के कार्य हो सकते थे, जिनसे कुछ अर्थ (धन) की सिद्धि होती, उसप्रकार के भाव न आवें / ऐसे भाव भी न आवे कि मैं अभी यों ही उठ गया, मेरे परिणाम तो बहुत अच्छे थे, यदि इसीप्रकार रहता तो विशेष रूप से कर्मो की निर्जरा होती / सामायिक में पंच परमगुरुओं को दो बार पंचांग नमस्कार करे, बारह आवर्त सहित चार शिरोनत्ति करे, नौ बार णमोकार मंत्र पढे, इतने काल बाद एक बार खडा होकर कायोत्सर्ग करे। नमस्कार तो सामायिक के आदि तथा अन्त में करे / भावार्थ :- चार शिरोनत्ति, बारह आवर्त सहित एक कायोत्सर्ग ये तीन क्रियायें श्रावक सामायिक के बीच में करता है, उसका विस्तार - सामायिक के पाठ की चौबीस (24) संस्कृत-प्राकृत पाटी है, उनमें जैसा विधान है वह उन में देख लेना। सामायिक करते समय प्रभात की सामायिक में बैठते समय पहले रात्रि में निद्रा, कुशील आदि क्रिया करते जो पाप उत्पन्न हुये थे उनसे निर्वृति के लिये श्री अरिहन्त देव से क्षमा मांगें / स्वयं निंदा करे कि मैं बहुत पापी हूं, मुझसे ये पाप छूटता नहीं, वह समय कब आवेगा जब मैं इनका त्याग कर सकूँगा / इनका फल तो अत्यन्त कडुआ है, हे जीव! तू इसे कैसे भोगेगा ? यहां तो तनिक-सी वेदना सहने में असमर्थ है, तो परभव में नरक आदि के घोर दु:ख, तीव्र वेदना दीर्घकाल तक कैसे सहेगा ? पर्याय छूट जाने पर जीव का नाश तो होता नहीं, वह तो अनादि-निधन अविनाशी है, अत: परलोक का दुःख अवश्य ही भोगना पडेगा / ___परलोक गमन कैसा है ? जैसे ग्राम से ग्रामान्तर, क्षेत्र से क्षेत्रान्तर, देश से देशान्तर किसी प्रयोजन वश गमन करे, सो जिस क्षेत्र को छोडा वहां तो उस जीव का अस्तित्व रहा नहीं तथा जिस क्षेत्र में पहुंचा, वहां
SR No.032848
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaimalla Bramhachari
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2010
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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