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________________ | सप्तम अधिकार : सामायिक का स्वरूप आगे अपने इष्ट देव को विनय पूर्वक नमस्कार करके सामायिक के स्वरूप का निरूपण करते हैं, उसे हे भव्य जीव ! तू सुन - दोहा - साम्यभाव युत वंदिकैतत्त्व प्रकाशन सार / वे गुरु मम हिरदै वसौ, भवदधि-तारनहार / / सामायिक नाम साम्य भाव का है / सामायिक कहो, साम्य भाव कहो, शुद्धोपयोग कहो, वीतराग भाव कहो अथवा नि:कषाय भाव कहो अथवा इन सब को एक ही कार्य कहो / ये सब तो कार्य हैं तथा कार्य सिद्धि के लिये बाह्य क्रिया साधन कारणभूत हैं / कारण के बिना कार्य की सिद्धि नहीं होती / अत: बाह्य कारणों का संयोग करना अवश्य योग्य है / वह द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव चार प्रकार से है / ___द्रव्य शुद्धि :- द्रव्य में तो श्रावक एक लंगोट तथा छोटे पहने (चौडाई) की तीन अथवा साडे तीन हाथ की धोती तथा मोर-पिच्छी रखे तथा शीतकाल आदि में शीत का परिषह नंगे शरीर से न सहा जावे तो एक बडे मोटे श्वेत वस्त्र से शरीर ढंक जावे उतना पास रखे, इससे अधिक परिग्रह न रखे तथा चौकी, पाटे अथवा शुद्ध भूमि पर स्थित होकर सामायिक करे, इतने परिग्रह से अधिक परिग्रह नहीं रखे। क्षेत्र शुद्धि :- जिस क्षेत्र में विशेष कोलाहल न हो तथा स्त्री-पुरुषतिर्यंच आदि का गमन न हो, पास-पडोस में भी मनुष्यों का शब्द न हो, ऐसे एकान्त निर्जन स्थान अथवा अपने घर अथवा जिनमंदिर अथवा सामान्य भूमि, वन, गुफा, पर्वत के शिखर आदि शुद्ध क्षेत्र में सामायिक करे / इसप्रकार क्षेत्र का प्रमाण कर ले कि जिस क्षेत्र में स्थित हुआ हो यह क्षेत्र उठने, बैठने, नमस्कार करने में दसों दिशायें स्पर्श में आवे, इतना
SR No.032848
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaimalla Bramhachari
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2010
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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