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________________ 174 ज्ञानानन्द श्रावकाचार जानकर मुझे क्षमा करें / हे भगवान ! हे प्रभो ! आपके समान मेरा अन्य कोई स्वामी नहीं है। हे भगवान ! आप ही मोक्ष लक्ष्मी के कन्त तथा आप ही जगत उद्धारक हैं, आपके चरणारविंद की सेवा करके अनेक जीव तिरे हैं तथा आगे भी तिरेंगे / हे भगवान ! आप ही दुःख दूर करने में समर्थ हैं। हे भगवान ! हे प्रभो जिनेन्द्र देव ! आपकी महिमा अगम्य है / हे भगवान ! आप समवशरण लक्ष्मी से विरक्त हैं, आप ही कामवाण विध्वंसक हैं, मोह योद्धा को पछाडने के लिये आप ही अद्वितीय योद्धा हैं / जरा मरण आदि रूप काल त्रिलोक के जीवों को निगलता, नाश करता चला आ रहा है, इसका नाश करने में कोई समर्थ नहीं है / समस्त लोक के जीव काल की दाढ में पड़े हैं, उनको यह काल निर्भय हुआ दाड से ग्रसता निगलता आज भी तृप्त नहीं हुआ है, उसकी दुष्टता और प्रबलता को जीतने में कौन समर्थ है ? उसे आपने क्षण मात्र में खेल-खेल ही में जीता है / अत: हे भगवान ! आपको हमारा नमस्कार हो। __ हे भगवान ! आपके चरण कमलों के सन्मुख आते ही मेरे पांव पवित्र हुये तथा आपका रूप देखते मेरे नेत्र पवित्र हुये, आपके गुणों की महिमा अथवा स्तुति करते मेरी जिव्हा पवित्र हुई / आपके गुणों की पंक्ति का स्मरण करते मन पवित्र हुआ तथा आपके गुणानुवाद को सुनते कान पवित्र हुये हैं। आपके गुणों का अनुमोदन करते मन विशेष रूप से पवित्र हुआ / आपके चरणों में साष्टांग नमस्कार करते सर्वांग पवित्र हुये। हे जिनेन्द्र देव ! धन्य आज का दिन, धन्य आज की घडी, धन्य यह महिना, धन्य यह वर्ष, जिस काल में आपके दर्शनों के लिये मैं सन्मुख हुआ। हे भगवान ! आपके दर्शन करते मुझे ऐसा आनन्द हुआ मानों नवनिधियां मिल गयी हों, मानों मेरे दरवाजे पर कल्पतरु उग आया हो अथवा पारस की प्राप्ति हुई हो अथवा जिनराज ने मेरे हाथ से निरन्तराय आहार लिया हो। ऐसा लगता है जैसे मैने तीन लोक का राज्य ही प्राप्त
SR No.032848
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaimalla Bramhachari
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2010
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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