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________________ सम्यग्चारित्र 173 बीज है वह उत्पन्न होता है, इत्यादि सारे अभ्यन्तर-बाह्य विघ्न हैं वे समाप्त हो जाते हैं। हे भगवान ! ऐसे शरीर की महिमा सहस्त्रों जिव्हाओं के द्वारा इन्द्र आदि देव क्यों न करें ? तथा हजार नेत्रों के द्वारा आपके रूप का अवलोकन क्यों न करें ? तथा इन्द्रों के समूह अनेक शरीर बना कर भक्तिवान हुये आनन्द रस से भीगे क्यों नृत्य नहीं करें ? आपका शरीर और कैसा है ? उसमें एक हजार आठ लक्षण हैं, जिनका प्रतिबिम्ब आकाश रूपी दर्पण में आ पडा है, वह आपके गुणों का प्रतिबिम्ब तारों के समूह-सा प्रतिभासित होता है / हे भगवान ! आपके चरण कमलों की लालिमा कैसी है ? मानों केवलज्ञान आदि चतुष्टय को उदित कराने के लिये यहां सूर्य ही उगा हो अथवा भव्य जीवों के कर्म रूपी काष्ट को जलाने के लिये आपके ध्यान रूपी अग्नि की चिनगारी होकर ही अप्राप्त हुआ है अथवा कल्याण वृक्ष के कोपल ही हैं अथवा चिंतामणी रत्न, कल्पवृक्ष, चित्राबेल, कामधेनु, रसकूप का पारस अथवा इन्द्र, धरनेन्द्र, नरेन्द्र नारायण, बलभद्र, तीर्थंकर, चार निकाय के देव, राजाओं का समूह तथा समस्त उत्कृष्ट पदार्थ एवं मोक्ष देने का एक मात्र परम उत्कृष्ट निधि ही है / ___ भावार्थ :- सर्वोत्कृष्ट वस्तुओं की प्राप्ति आपके चरणों की आराधना से ही होती है, अत: आपके चरण ही सर्वोत्कृष्ट निधि हैं / हे भगवान ! आपका हृदय विशाल है, मानों गुलाब का फूल ही विकसित हुआ है / आपके नेत्रों में ऐसा आनन्द बसा है जिसके एक अंश मात्र आनन्द से निर्मित होकर चार जाति के देवों के शरीर उत्पन्न हुये हैं / आपके शरीर की महिमा कहने के लिये तीन लोक में कौन समर्थ है ? परन्तु लाडला पुत्र हो वह माता-पिता को चाहे जैसा बोले पर माता-पिता उसे बालक जानकर उससे प्रीति ही करते हैं तथा उसकी मन मांगी मिष्ट वस्तु खाने के लिये मंगा देते हैं / उसीप्रकार हे भगवान ! आप मेरे उदित माता-पिता हैं, मैं आपका लघु पुत्र हूँ, अत: छोटा बालक
SR No.032848
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaimalla Bramhachari
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2010
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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