________________ सम्यग्चारित्र 169 बिना (कर्म के) बंध, उदय, सत्ता का अभाव नहीं होता, अत: संयम ग्रहण करना योग्य है। जिनबिम्ब दर्शन आगे जिन बिम्ब का दर्शन किस प्रकार करना, क्या भेंट करना, कैसे स्तुति करना, विनय करना, उसका स्वरूप विशेष रूप से कहते हैं - दोहा :- मैं बंदों जिनबिंब को, करि अति निर्मल भाव / कर्म बंध के छेदने, और न कछु उपाव / / पहले सामायिक करने के बाद, लघु दीर्घ शंका मिटा कर, जल से शुद्धि (स्नान) कर पवित्र वस्त्र पहन कर तथा मनोज्ञ पवित्र एक दो आदि अष्ट द्रव्यों तक रकेबी में रख कर स्वयं नंगे पांव, चमडे, ऊन आदि के स्पर्श से रहित, महा हर्ष पूर्वक मंदिर जाना चाहिये। जिन मंदिर में प्रवेश करते समय “जय निस्सहि, जय निस्सहि, जय निस्सहि” कहना चाहिये। इसका अर्थ यह है कि यदि कोई देव आदि गुप्त (अदृश्य रूप से) यहां मौजूद हों तो वे दूर हों, दूर हों, दूर हों (अर्थात मुझे भी दर्शन करने के लिये स्थान दें ) / फिर “जय जय जय" शब्द कहे तथा श्रीजी के सम्मुख खडे होकर रकेबी को हाथ में से रख कर दोनों हाथ जोड कर ( दोनों हाथों की नारियल जैसी आकृति बनाकर) मस्तक के ऊपर रख कर तीन आवृति करके एक शिरोनति करे तथा अष्टांग नमस्कार करे अर्थात मन-वचनकाय इन तीनों की शुद्धि पूर्वक मस्तक, दो हाथ, दो पांव को नमाने से अष्टांग नमस्कार होता है / नमस्कार करने के बाद पहले तीन प्रदक्षिणा दे। भावार्थ :- आठों अंगों को ही नमावे / आठ अंगों के नाम - मस्तक, दो हाथ, दो पांव, मन, वचन, काय इसप्रकार आठ अंग हैं तथा उत्तर अवयव - अधर, मुख, आंख, कान, अंगुलियां आदि उपांग जानना। भगवान सर्वोत्कृष्ट हैं अतः उन्हें अष्टांग नमस्कार किया जाता है / जिनवाणी, निर्ग्रन्थ गुरु को पंचांग नमस्कार करते हैं / दोनों घुटने, धरती से लगाकर दोनों हाथ मस्तक से लगाकर, हाथ सहित मस्तक भूमि से