SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 183
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 168 ज्ञानानन्द श्रावकाचार इसमें मान विशेष रूप से गलता (नष्ट होता) है तथा पांचों इन्द्रियां वश में होती हैं अथवा चित्त की एकाग्रता होती है, यही ध्यान है। ज्ञान विशेष होता है / सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र निर्मल होते हैं तथा पुण्य का संचय अत्यन्त अतिशय रूप होता है / ___जितने धर्म के अंग हैं वे ज्ञानाभ्यास से ही जाने जाते हैं, अतः सर्व धर्म का मूल एक शास्त्राभ्यास है, इसका फल केवलज्ञान है / स्वाध्याय से भी अधिक अनन्त गुणा विशेष फल व्युत्सर्ग तथा ध्यान का है, इनका फल मुख्यरूप से मोक्ष है / बाह्य तप जो कहे गये हैं वे भी कषाय घटाने के लिये ही कहे गये हैं / कषाय सहित बाह्य तप करे तो वह तप संसार का ही बीज कारण है, मोक्ष का बीज नहीं है। ऐसा बारह प्रकार के तप का फल जानना / आगे तप का विशेष फल कहते हैं :- वह देखो, अन्य मत वाले अथवा तिर्यन्च मंद कषाय के माहात्म्य से सोलहवें स्वर्ग पर्यन्त जाते हैं तो जिनधर्म के श्रद्धानी कर्म काट कर मोक्ष क्यों नहीं जावेंगे / अतः तप से कर्मो की विशेष निर्जरा है, वह ही तत्वार्थसूत्र में कहा है - “तपसा निर्जरा च"। अतः ऐसी निर्जरा हेतु अवश्य ही अभ्यन्तर बाह्य बारह प्रकार के तप अंगीकार करना चाहिये। तप के बिना कर्म कदापि नहीं कटते ऐसा तात्पर्य जानना। इसप्रकार तप का कथन पूर्ण हुआ। बारह प्रकार का संयम संयम दो प्रकार का होता है - (1) इन्द्रिय संयम (2) प्राणी संयम / इन्द्रिय संयम छह प्रकार का है तथा प्राणी संयम भी छह प्रकार का है / पांचों इन्द्रियों तथा मन का निरोध करना, छह काय के जीवों की हिंसा का त्याग करना, इनको (क्रमश:) इन्द्रिय संयम और प्राणी संयम कहा जाता है / संयम नि:कषाय के लिये कारण है तथा नि:कषायता ही मोक्ष का मार्ग है / संयम के बिना नि:कषाय कदाचित नहीं होता। नि:कषाय
SR No.032848
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaimalla Bramhachari
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2010
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy