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________________ 162 ज्ञानानन्द श्रावकाचार द्वारा सेवनीय, त्रिलोक में पूज्य, मोक्ष सुख के पात्र ऐसा सर्वोत्कृष्ट महादुर्लभ, परम उत्कृष्ट, परम पवित्र है, उसे जानकर उसे प्राप्त करने की भावना निरन्तर रखो / बहुत क्या कहना ? कदाचित ऐसा मौका (अवसर) पाकर भी यहां से च्युत हो गया, तो पुनः ऐसा अवसर मिलने का (कोई ठिकाना) नहीं। इस समय अन्य सब सामग्री तो प्राप्त हो ही गयी है एक रुचि ही का होना शेष रहा है / बहुत अल्प सा यह उपाय न करने के कारण पायी हुई यह सामग्री (यह अवसर) निरर्थक चली जावे तो उसकी चिन्ता सत्पुरुष कैसे न करें ? यदि यह जीव पुन: एकेन्द्रिय पर्याय में जा पडा तो वहां उत्कृष्ट असंख्यात पुद्गल परावर्तन काल तक रहना पड सकता है / एक पुद्गल परावर्तन काल के वर्षों की संख्या अनन्त होती है / अनन्त सागर, अनन्त अवसर्पिणी, उत्सर्पिणी के कालचक्र भी एक पुद्गल परावर्तन के अनन्तवें भाग एक अंश के बराबर नहीं होते / एकेन्द्रिय पर्याय में अपरिमित दुःख है, उसमें नरक से भी अधिक दुःख पाये जाते (होते) हैं / ऐसे अपरंपार दुःख दीर्घकाल से सदा भोगता आया है, परन्तु कर्म के वश हुआ जीव क्या उपाय करे ? यहां अनेक रोगों में से किसी एक काल में एक रोग की वेदना का उदय हो, उसके दुःख से ही जीव कैसा आकुल-व्याकुल हुआ परिणमता है, आप स्वयं अपघात करके मरना चाहता है / ऐसी अवस्था इस पर्याय में सर्व जीवों की होती है अथवा सारे ही तिर्यंच तथा मनुष्य प्रत्यक्ष ही अत्यन्त दुःखी देखने में आते हैं, उनमें से एक-एक दुःख का भी अनुभव किया जावे तो भोजन रुचिकर नहीं लगे / परन्तु यह जीव अज्ञान बुद्धि करके मोह मदिरा पीकर मस्त हो रहा है, एकान्त में बैठ कर विचार करता नहीं / वर्तमान में जो पर्याय प्राप्त की है, उस पर्याय में ही तन्मय होकर एकत्व बुद्धि पूर्वक परिणमता है, पूर्वापर का विचार नहीं करता। ऐसा नहीं जानता कि यह अन्य जीवों जैसी अवस्था पूर्व में मैने अनन्त बार भोगी है तथा धर्म के बिना पुन: भोगूंगा / यह पर्याय
SR No.032848
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaimalla Bramhachari
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2010
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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