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________________ सम्यग्चारित्र 161 अनेक पाप प्रकृतियों के समूह का उदय है। ऐसे जीवों में से छह माह आठ समय में केवल छह सौ आठ (608) जीव नियम से वहां से निकलते हैं, इससे कम या अधिक नहीं निकलते / अनादि काल से इतने ही जीव निकल कर व्यवहार राशि में आते हैं तथा इतने ही जीव व्यवहार राशि में निकल कर मोक्ष जाते हैं / इसे काललब्धि का माहात्म्य जानो। पूर्व में अनादि काल से जितने सिद्ध हुये हैं अथवा नित्य-निगोद से निकले हैं उनसे अनन्त गुणे जीव एक-एक समय में अनादि काल से लगातार नित्य-निगोद में से निकलते रहें तो भी एक निगोद शरीर में जीव की राशि के अनन्तवें भाग एक अंश मात्र खाली होती नहीं है / तो बताओ राजमार्ग के लुटेरों के सामने निगोद में से निकलना कैसे हो ? किसी भाग्य के उदय से वहां से निकलना हो जावे तो आगे भी अनेक स्तरों को उल्लंघन कर मनुष्य भव में उच्च कुल, सुक्षेत्रवास, निरोग शरीर, पांचों इन्द्रियों की पूर्णता, निर्मल ज्ञान दीर्घ आयु, सत्संगति, जिनधर्म की प्राप्ति इत्यादि परम उत्कृष्टपने की महिमा का क्या कहना ? इतनी सामग्री (अनुकूलतायें) पाकर भी जो सम्यग्ज्ञान, रत्नत्रय की इच्छा नहीं रखते, उनकी दुर्बुद्धि का क्या कहना तथा उनके अपयश का क्या पूछना ? ___ एकेन्द्रिय पर्याय से दो इन्द्रिय पर्याय का पाना ही महादुर्लभ है, दो इन्द्रिय से तीन इन्द्रिय होना महादुर्लभ है। तीन इन्द्रिय से चार इन्द्रिय पर्याय पाना अति दुर्लभ है / चार इन्द्रिय से असैनी पंचेन्द्रिय पर्याय पाना कठिन है / असैनी से सैनी तथा उनमें भी गर्भज पर्याप्तक होना महादुर्लभ है / यह (सैनी पंचेन्द्रिय गर्भज पर्याप्तक) पर्याय जो अनुक्रम से महादुर्लभ है वह भी अनन्त बार पाई पर सम्यग्ज्ञान अनादि काल से लेकर अब तक एक बार भी नहीं पाया / यदि सम्यग्ज्ञान प्राप्त कर लिया होता तो संसार में क्यों रहता ? जाकर मोक्ष के सुख को ही प्राप्त कर लिया होता / अत: भव्य जीव शीघ्र ही सम्यग्ज्ञान, जो परम चिंतामणी रत्न, महा अनमोल, परम मंगलकारी, मंगलरूप, सुख की खान, पंच परम गुरुओं
SR No.032848
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaimalla Bramhachari
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2010
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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