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________________ विभिन्न दोषों का स्वरूप 143 तीनों पहले के तथा दो दूसरे तीन में से इसप्रकार भी तीन भंग हुये तथा तीनों ही पहले के एवं तीनों ही दूसरे के लेने पर एक भंग हुआ। इसतरह कुल मिलाकर उनचास (49) भंग होते हैं / तीन काल ( भूत, भविष्य, वर्तमान ) से इन उनचास को गुणा करने पर एक सौ सैंतालीस (147) भेद जानना / इति भंगों का संपूर्ण स्वरूप। सोलह कारण भावना आगे सोलह कारण भावना का स्वरूप लिखते हैं / (1) दर्शन विशुद्धि - दर्शन श्रद्धा को कहा जाता है / सम्यक्त्वी के श्रद्धान में निश्चय व्यवहार से पच्चीस मल रहित निर्मलता के होने को, दर्शन विशुद्धि कहते हैं / (2) विनय सम्पन्नता - देव-गुरु-धर्म का तथा अपने से गुणों में अधिक जो धर्मात्मा पुरुष हों उनका विनय करना / (3) शीलव्रतेष्वनतिचार - अर्थात शीलव्रत में अतिचार न लगाना / मुनियों के जो पांच महाव्रत हैं तथा (28 मूल गुणों में से शेष रहे) तेबीस (23) अन्य गुण हैं वे ही शील हैं तथा श्रावक के बारह व्रतों में पांच तो अणुव्रत हैं तथा शेष सात व्रतों का पालन ही शील है, ऐसा अर्थ जानना / (4) अभीक्षण ज्ञानोपयोग :- निरन्तर ज्ञानाभ्यास होना अभीक्षण ज्ञानोपयोग है / (5) संवेग :- धर्मानुराग को संवेग कहते हैं / (6) शक्तितस्त्याग :अपनी शक्ति के अनुसार त्याग करने को शक्तित:त्याग कहते हैं / (7) शक्तित:तप :- अपनी शक्ति के अनुसार तप करने को शक्तित:तप कहते हैं / (8) साधु समाधि :- नि:कषाय भाव से मरण करने को साधु-समाधि कहते हैं / (9) वैयावृत्य :- दश प्रकार के संघ का वैयावृत अर्थात सेवा करना अथवा अपने से अधिक गुणों वाले धर्मात्माओं की पगचंपी (सेवा) करने को वैयावृत कहते हैं। (10) अरिहंत -भक्ति :- अरिहंत देव की भक्ति करने को अरिहंतभक्ति कहते हैं / (11) आचार्य भक्ति :- आचार्यो की भक्ति करने को
SR No.032848
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaimalla Bramhachari
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2010
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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