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________________ 126 ज्ञानानन्द श्रावकाचार आदि भी आहार में दे दिया गया हो तो साधु की वृत्ति तो यही है कि जो कुछ भी दिया गया हो वही ले लेना / आहार लेने के बाद पृथ्वी पर डालने से तो बहुत जीवों की हिंसा होगी, अत: इसे भक्षण कर लेना ही उचित है, बाद में गुरु को बता कर इसका प्रायश्चित ले लेंगे। देवता ने मनुष्यनि से भोग किया जिससे सुलसा श्रावकणी (श्राविका) को देव के समान बेटा उत्पन्न हुआ। चक्रवर्ती के छह हजार स्त्रियां हुई / त्रिपृष्ट नारायण छींपे के कुल में उत्पन्न हुआ / बाहुबली का शरीर सवा पांच सौ धनुष ऊंचा नहीं मानते, कुछ कम मानते हैं / वर्द्धमान स्वामी ने अनार्य देश में विहार-कर्म किया। चौथे काल में यति भी संयमी को पूजते हैं / धनदेव का एक कोस मनुष्य के चार कोस के बराबर है / समवशरण में तीर्थंकर नग्न नहीं दिखते, वस्त्र पहने ही दिखते हैं / यति हाथ में डंडे रखें / मरूदेवी माता को हाथी पर चढे-चढे ही केवलज्ञान हो गया, जिसका फलितार्थ यह हुआ कि द्रव्य-चारित्र के बिना ही (तथा स्त्री पर्याय में ही ) केवलज्ञान उत्पन्न हुआ / चाण्डाल आदि नीच कुल वाले दीक्षा धारण करें तथा मोक्ष जावें (भी दीक्षा धारण कर सकते हैं तथा मोक्ष जा सकते हैं) / चन्द्रमा और सूर्य अपने मूल विमानों सहित महावीर स्वामी की वंदना के लिये आये / पहले स्वर्ग का इन्द्र दूसरे स्वर्ग में जाकर वहां का स्वामी हो जाता है तथा दूसरे स्वर्ग का इन्द्र पहले स्वर्ग का स्वामी हो जाता है / युगलियाओं का शरीर मरने के बाद भी पड़ा रहता है / जिनेश्वर के मूल शरीर को जलाया जाता है / श्रावक अथवा यति को कोई स्त्री आकर मन की स्थिरता करावे तो स्त्री को कोई दोष नहीं लगता। पुण्य ही उपार्जित करती है क्योंकि यति अथवा श्रावक को जो विकार बाधा उत्पन्न हुई थी वह मिटी / तीर्थंकर को अठारह दोष सहित मानना / ___तीर्थंकर के शरीर से पांच स्थावर जीवों की हिंसा होना मानना / तीर्थंकर की माता चौदह ही स्वप्न देखती है / स्वर्ग बारह ही होते हैं / गंगादेवी से भोगभूमिया ने पचपन हजार वर्ष पर्यन्त भोग भोगा / प्रलय
SR No.032848
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaimalla Bramhachari
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2010
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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