SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 132
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विभिन्न दोषों का स्वरूप 117 ___ पंचम काल में ये सोलह स्वप्न राजा चन्द्रगुप्त को आये, राजा चन्द्रगुप्त ने दीक्षा धारण करली / उन स्वप्नों में बारह फनों वाला सर्प देखने से बारह वर्ष का अकाल पडना जाना / उस समय चौबीस हजार मुनियों का संघ था, उन्होंने संघ को बुलाकर कहा - इस देश में बारह वर्ष का अकाल पडेगा, यहां रहेंगे वे भ्रष्ट होंगे, दक्षिण में चले जावेंगे उनका मुनिपद रह पावेगा, उस तरफ अकाल नहीं होगा। श्वेताम्बर मत की उत्पत्ति ऐसा कहने पर भद्रबाहु स्वामी सहित बारह हजार मुनि तो दक्षिण दिशा की तरफ विहार कर गये। शेष बारह हजार मुनि यहां ही रहे, जो अनुक्रम से भ्रष्ट होकर पात्र, झोली, अंगोछा रखने लगे / बारह वर्ष पूर्ण होने पर पुनः सुभिक्ष काल आया, तब भद्रबाहु स्वामी तो परलोक जा चुके थे तथा दक्षिण के सारे मुनियों ने इधर आने पर इधर रहे मुनियों की भ्रष्ट अवस्था देखकर उनकी निंदा की / तब कुछ तो प्रायश्चित तथा दंड ग्रहण कर छेदोपस्थापन कर शुद्ध हुये, शेष प्रमाद के वशीभूत हुये / विषयकषायों के अनुरागी हुये, धर्म से शिथिल हुये। कायरता धारण करते हुये मन में ऐसा विचार करते हुये कि जिनधर्म का आचरण तो अत्यन्त कठिन है, हम तो ऐसा आचरण पालने में असमर्थ हैं, अतः अब सुगम क्रिया में प्रवर्तन करेंगे तथा काल पूरा करेंगे। इसी अनुसार उपाय करते हुये जिन प्रणीत शास्त्र का लोप कर जिससे अपना स्वार्थ सधे तथा विषय-कषायों का पोषण होता रहे, उसके अनुसार अपनी पंडिताई के बल से पैंतालीस (45) शास्त्रों की मनोकल्पित रचना की तथा उनका नाम द्वादशांग रखा। उनमें देव-गुरु-धर्म का स्वरूप अन्यथा लिखा। देव-गुरु को भी परिग्रह होना बताया। धर्म को सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रहित तथा लेशमात्र भी वीतराग भाव रहित निरूपित किया। वे अब तो तीन अंगाछे, ओधा, मुंहपट्टी, पात्र आदि रखने लगे और दीक्षा आदि का अभाव हुआ।
SR No.032848
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaimalla Bramhachari
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2010
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy