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________________ 101 विभिन्न दोषों का स्वरूप सदृश्य यह छोटा पात्र है / इसमें जीवों की हिंसा विशेष होती है / इसलिये गर्म पानी में स्याही मिलाकर उसका पानी प्रभात तक रखना, संध्या समय में उसके पानी को सुखा देना चाहिये, तथा प्रभात में फिर भिगो लेना चाहिये / इसप्रकार नित्य स्याही बना लेना - यह स्याही सदा प्रासुक है। इसमें किसी प्रकार का दोष नहीं है / थोडा सा प्रमाद छोडने पर अपरम्पार लाभ होता है। धर्मात्मा पुरुषों के रहने का क्षेत्र आगे धर्मात्मा पुरुषों के रहने के क्षेत्र का वर्णन करते हैं / जहां पर न्यायवान जैन राजा हो, अनाज व ईंधन शोधा हुआ मिलता हो, पानी छाना जाता हो, विकलत्रय जीव थोडे हों, स्वयं (राजा) की अथवा अन्य की फौज का उपद्रव न हो, शहर के आसपास गढ हो, जिन मंदिर हो, साधर्मी हों, किसीप्रकार की जीव हिंसा न होती हो, राजा बालक (उम्र में छोटा) न हो, राजा अपरिपक्व बुद्धि का धारक न हो, राजा अन्य लोगों की बुद्धि के अनुसार कार्य न करता हो, राजा के पास बहुत नायक (अधिकारी-कर्मचारी) न हों, स्त्री का राज्य न हो, पंचों का स्थापित किया राज्य न हो (- संभवतः 'न' गलत लिखने में आगया प्रतीत होता है, ज्ञानीजन वस्तु स्थिति के अनुसार ही अर्थ ग्रहण करें), नगर के चारों ओर दूसरे (अन्य) की सेना का घेरा न हो, मिथ्यामति लोगों का प्रबल जोर न हो, इत्यादि द:ख के कारण रूप अथवा पाप के कारण रूप ऐसे स्थानों को दूर से ही त्यागना योग्य है। आसादन दोष आगे जिन मंदिर में अज्ञान एवं कषाय से चौरासी आसादन दोष लगते हैं तथा विचक्षण धर्मबुद्धि रखने पर नहीं लगते हैं, उनका स्वरूप कहते हैं / श्लेषमा (कफ) नहीं डालना, हास्य कौतूहल नहीं करना, कलह (लडाई) नहीं करना, कोई कला अथवा चतुराई नहीं सीखना,
SR No.032848
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaimalla Bramhachari
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2010
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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