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________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार 92 वशीभूत हुई उस राल को एक स्थान पर उगल कर एकत्रित करती हैं / इसप्रकार एकत्रित होते-होते बहुत राल एकत्रित हो जाती है, तथा बहुत काल तक पडी रहने से मीठे स्वाद रूप परिणमित हो जाती है / उसमें समय-समय पर लाखों करोडों बडे-बडे जीव आंखों से दिखाई देते हैं / __ उनको प्रारंभ कर असंख्य त्रस जीव उत्पन्न हो जाते हैं तथा निगोद राशि भी उत्पन्न हो जाती है। उसी में ही मधुमक्खियां निहार करती हैं, जिनका विष्टा भी उसी में एकत्रित होता जाता है। महानिर्दय भील आदि उसे पत्थर आदि से पीडित करते हैं तथा उनके छोटे बच्चों एवं अन्तरंग अंडों को मसल-मसल कर निचोड कर रस निकाल लेते हैं तथा उस रस को अक्रियावान निर्दय पंसारी आदि को बेच देते हैं / उस शहद में मक्खी, चींटी, मकोडा आदि अनेक त्रस जीव आकर उलझ जाते हैं अथवा चिपक जाते हैं / लोभी पुरुष उसे दो चार वर्ष पर्यन्त संचित रखते हैं / उसमें ऊपर कहे अनुसार जिस समय से शहद की उत्पत्ति होती है, उस समय से लेकर जब तक शहद रखा रहता है तब तक असंख्यात त्रस जीव सदैव उत्पन्न होते रहते हैं / ऐसा शहद किसप्रकार पंचामृत हुआ ? पर अपने लोभ के वश यह मनुष्य क्या-क्या अनर्थ नहीं करता ? क्या-क्या अखाद्य वस्तुयें नहीं खाता ? इसप्रकार वह शहद मांस के सदृष्य है। मद्य, मांस, मधु सब एक से है / इसलिये इनका खाना तो दूर ही रहे, औषध के रूप में भी इस (मद्य) का स्पर्श करना उचित नहीं है / जैसे मदिरा, मांस की बनी औषधि का उपयोग उचित नहीं है, वैसे ही जानना / इसको औषध के रूप में ग्रहण किया जाना दीर्घकाल के संचित पुण्य का नाश करता है। कांजी भक्षण के दोष आगे कांजी (भक्षण) के दोष कहते हैं - छाछ की मर्यादा बिलोने के बाद सूर्यास्त तक की है, इसके बाद रक्खी रहने पर उसमें अनेक त्रस जीव उत्पन्न हो जाते हैं / ज्यों-ज्यों अधिक काल तक रखी रहती है, त्यों-त्यों
SR No.032848
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaimalla Bramhachari
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2010
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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