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________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [211 Farararararerarararararararararsrararee पद्धडी छन्द जै जै श्री मंदिर गिर महान, वर पुष्कराघमें पूर्व जान। जै गिरकी पूरव दिश विचार, तहां षोड़श देशविदेह सार॥ जै वरतै चौथो काल रीत, जहां शिवमारग चालैं पुनीत। तहां तीर्थंकर चक्रीश होय, बलहर प्रतिहर मकरंद सोय॥ जै पुन्य पुरुष उपजै अपार, मुनिराज वहैं चारित्र भार। जै कर्मभूमि विध रही छाय, भवि जीव तिरै केवल उपाय। तिसबीच पडोबैताड़ नाग, द्युति स्वेत वरण सुन्दर सुहाग॥ षोड़शगिर षोड़शदेश माहि, तिस ऊपर विद्याधर रहाहि। गिर शिखरकूट पंकत रवन्य, तहां सिद्धकूट सोहें सु धन्य॥ जै तहां जिनमंदिर हैं उतंग, जै कलश धुजा सोहे अभंग। जै सिंहासनपर कमलसार, जै जगमग जगमग द्युति अपार॥ जैतापर श्रीजिनराजदेव, शतआठ अधिक प्रतिमा गनेव। जै सुर विद्याधर दरव लाय, जिनराज चरण पूजत बनाय॥ जै करत जु स्तुति प्रीत धार, जिनराज सबै नैनन निहार। जै निरजर निरजरनी सुआय, जै नृत्य करत बाजै बजाय॥ जै द्रुम द्रुम द्रुम बाजत मृदंग, जै बीन बांसरी और मृदंग। जै थेई थेई थेई धुन रही पूर, जै खेलें झुरमट जिन हजूर। घत्ता-दोहा मेरु सु मंदिर पूरव दिश, रूपागिर सु विशाल। तिनपर घोड़स जिनभवन, बलबल जात सु लाल // 37 // इति जयमाल।
SR No.032847
Book TitleTerah Dwip Puja Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kisandas Kapadia
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year2000
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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