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________________ क्षद्रकों का चन्द्रगुप्त को सहयोग इस क्षेत्र के निवासी मालवों क्षद्रकों पर भी जैन-प्रभाव की सम्भावना प्रकट करता है / तत्पश्चात् सम्राट सम्प्रति का इस क्षेत्र पर प्रशासनिक प्रभाव इस मैत्रिक सम्बन्ध की पुष्टि करता है। चुकि सिकन्दर का काल रत्नप्रभसूरि के काल से समकालीन है अत: यह भी उपर्युक्त जैन-प्रभाव शृंखला की पुष्टि करता है। संप्रति का काल गुप्तकाल का पूर्वार्द्ध था। एक ओर इतिहासकारों का यह मत है कि सिकन्दर का सामना करने हेतु मालव व क्षुद्रकों ने अपने आपसी विवाद भला कर उन्हें स्थायी एकता में परिवर्तित करने हेतु आपस में शादी ब्याह कर लिए थे व दूसरी ओर इसी काल में विभिन्न जातियों का रत्नप्रभवसूरि द्वारा ओसवाल जाति की स्थापना कर उन्हें शादी ब्याह हेतु स्थायी एकता में बाँधना इतिहास का एक अद्भुत सामन्जस्य है व एक ऐतिहासिक तथ्य की पुष्टि का संकेत है। जैन-ग्रन्थों के प्राचीन उल्लेखों के अनुसार वीरमसेन नामक दो भाईयों ने वीर-निर्वाण की दूसरी शताब्दी में नाकोड़ा ब बीरमपुर नाम के दो नगर बसाये और दोनों ने अपने अपने नगरों में जिन-मन्दिरों के निर्माण करवाये / नाकोड़ा नगर में भगवान पार्श्वनाथ का मदिर बनवाया व बीरमपुर में तीर्थ कर चन्द्रप्रभुजी को मूलनायक के रूप में स्थापित किया गया। वीरमपुर में कालान्तर में जीर्णोद्धार के समय चन्दाप्रभु के स्थान पर भगवान् महावीर की प्रतिमा स्थापित की गई जो पुनः जोर्णोद्धार के समय नाकोड़ा के नागद्रह से प्राप्त भगवान् पाश्वनाथ की प्रतिमा से परिवर्तित हुई है। अभी नाकोड़ा में पंचतीर्थी मन्दिर में जो महावीर की विशाल पीत पाषाण-प्रतिमा विराजित है वह यही मूलनायक जी की प्रतिमा है / इस प्रतिमा पर पीछे की ओर एक लेख है जिसमें इसे महावीर-बिम्ब के रूप में उल्लिखित किया गया है / लगता है यह उल्लेख इसे किसी जिर्णोद्धार में पुन: स्थापित करते समय लिया गया है क्योंकि यह शारीरिक भाग जहाँ यह उल्लेख किया गया है, लेख लिखने, का स्थान नहीं है / स्पष्ट है जिस काल की यह प्रतिमा है उस समय लेख लिखने की परम्परा नहीं थी। इस प्रतिमा की कुछ और विशेषताए भी हैं, इस प्रतिमा के पीठासन पर सुन्दर उत्कीर्णी है जो बहुत पुरानी प्रतिमाओं में ही मिलती है। 15 वीं शताब्दी की अन्य प्रतिमाओं में यह जित्कीर्णी नहीं है / प्रतिमा की नाक विशेष रूप से तीखी, हाथों की कोहनयां शिल में पाछे से सहारे के पत्थर से जुड़ा होना, कानों के कुण्डलों
SR No.032838
Book TitleBadmer Jile ke Prachin Jain Shilalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Shwetambar Nakoda Parshwanath Tirth
PublisherJain Shwetambar Nakoda Parshwanath Tirth
Publication Year1987
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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