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________________ [ 173 ] चैत्य यानी जिनमन्दिर को जुहारे-वंदन करे, वान्द कर दूसरे उत्पात में नन्दीश्वर द्वीप में समवसरण ( विश्राम ) करे ( रुके ) / विश्राम कर के नन्दीश्वर द्वीप के चैत्य यानी जिनमन्दिर को वान्दे, जिनमन्दिर को वान्द कर यहाँ वापस लौटे / यहाँ प्राकर (मध्यलोक स्थित-भरत क्षेत्र के प्रशाश्वत ) जिन मन्दिर को वान्दे-जुहारे / हे गौतम ! विद्याचारण मुनि का तिरछी गति का इतना विषय है। एकादश प्रमाण . श्री पंचाशक प्रकरण में 1444 ग्रन्थ के रचयिता, परम सत्य प्रिय पूज्य हरिभद्रसूरिजी महाराज लिखते हैं कि "गृहस्थों के पास स्वयं के उपभोग की जो सामग्री है उनका सर्वश्रेष्ठ उपयोग भगवान श्री तीर्थकरों में विनियोग है यथा "न य अन्नो उवरोगो, एएसि सियाणं लट्ठयरो" इस गाथा [श्लोक] की टीका करते हुए नवांगी टीकाकार पूज्यपाद श्री अभयदेवसूरिजी महाराज लिखते हैं कि xxxन नैव, च समुच्चये अन्यो जिनपतिपूजातोऽपरः उपयोगो विनियोगस्थानम्, एतेषां प्रवरसाधनानां सतां विद्यमानानां लष्टतरः प्रधानतरो भवति........अतः प्रवर पुष्पादिभिः पूजा विधेया इति गाथार्यः।xxx अर्थ - विद्यमान् प्रवर [ श्रेष्ठ ] साधनों [वस्त्र-पुष्प-फलआदि] का जिनेन्द्र भगवान की पूजा से बढ़कर अन्य उत्तम उपयोग नहीं है / इसलिये पुष्पादि से जिनेश्वर भगवान की पूजा करनी चाहिए। द्वादश प्रमाण ____ प्रागमेतर जैन साहित्य में सबसे प्राचीन प्रामाणिक "उपदेशमाला" नामक ग्रन्थ, जो श्री महावीर भगवान के हस्त दीक्षित शिष्य
SR No.032834
Book TitleKalpit Itihas se Savdhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvansundarvijay, Jaysundarvijay, Kapurchand Jain
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year1983
Total Pages222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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