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________________ [ 118 ] का समर्थन किया है / स्थानकपंथियों में घर के आंगन में ही लोंकाशाह के विषय में काफी मतभेद हैं एवं इसकी दीक्षा के विषय में भी इतने ही मतभेद हैं। हमारा तो इतना ही कहना है कि स्थानक पंथी अगर पूर्वाचार्यों पर श्रद्धा रखते हैं तो उनके मार्ग को उन्हें अपनाना चाहिए / अन्यथा श्रद्धाभ्रष्ट के विषय में प्राचार्य स्वयं खंड 2, पृ० 57 पर लिखते हैं कि 888 सण भट्ठो भट्ठो, दंसण भट्ठस्स नत्थि निव्वाणं / सिझंति चरण रहिया, दंसण रहिया न सिझंति // अर्थात्-दर्शनभ्रष्ट ( श्रद्धा से पतित ) भ्रष्ट है, ऐसे श्रद्धाभ्रष्ट का निर्वाण ( मोक्ष ) नहीं होता, ( द्रव्य ) चारित्र बिना भी मोक्ष है, किन्तु श्रद्धा रहित का मोक्ष नहीं है।४४४ मीमांसा- श्री ठाणांग सूत्र, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति आदि अनेक आगम सूत्रों में जगह जगह शाश्वत-प्रशाश्वत जिनप्रतिमा और जिन मन्दिर प्रादि की बात आती है / प्रागमेतर प्राचीन जैन साहित्य वृत्ति, चूणि, भाष्य, टीकादि में भी जिनमन्दिर, स्तूप आदि की बात लिखी है। प्राचीन ऐतिहासिक अवशेष भी मूर्तिपूजा की ठोस सिद्धि करते हैं एवं पूर्वाचार्यों ने ही सम्मेदशिखर, शत्रुजय, गिरनारजी, पावापुरी, चंपापुरी आदि अनेक तीर्थों एवं तीर्थंकरों की कल्याणक भूमियों पर जिनमन्दिर निर्माण करवाये हैं और उनमें जिनप्रतिमा की प्रतिष्ठा भी करवायी है / ऐसी दशा में कम से कम श्रद्धावन्त कोई भी जैन जिनप्रतिमा और मंदिर के तथ्य को स्वीकार किये बिना नहीं रह सकता और इसमें ही अनेकान्त दृष्टि सन्निहित है /
SR No.032834
Book TitleKalpit Itihas se Savdhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvansundarvijay, Jaysundarvijay, Kapurchand Jain
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year1983
Total Pages222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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