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________________ [ 111 ] यद्यपि श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों जैन समाज की यह श्रद्धा है कि "जिन प्रतिमा जिन सारिखो" / यानी जिनेश्वर देव की प्रतिमा जिनेश्वर देव के समान ही है। बहुधा स्थानकपंथी लोग श्वेताम्बरों को पत्थर पूजक कहते हैं या भगवान की मूर्ति को पत्थर कहते हैं तो यह उनकी अल्पज्ञता ही है, क्योंकि मूर्ति की पूजा इसलिए नहीं की जाती है कि वह सोने, चांदी या संगमरमर की है, किन्तु वह तीर्थंकर परमात्मा की है इसलिए पूजा की जाती है। वास्तविकता यह है कि जिसका भावनिक्षेप वंदनीय-पूजनीय है, उसका नाम, स्थापना और द्रव्य ये तीनों निक्षेप भी वंदनीय-पूजनीय हैं / मूर्ति मूर्तिमान का स्मारक है / मति द्वारा मूर्तिमान की पूजा की जाती है। सिर्फ नाम स्मरण करने वाले भी अगर नाम स्मरण की गहराई में उतरें तो जड़ नाम के स्मरण के पीछे भी यही आशय समाया हुआ है / यद्यपि तीर्थंकर परमात्मा के सिर्फ नाम स्मरण के पक्षधर एवं हिमायती स्थानकपंथी मुनि आदि अपनी तस्वीर बड़े चाव से खिचवाते, बँटवाते देखे गये हैं, यहाँ भी मूर्ति के पीछे मूर्तिमान के स्मरण का भाव ही होगा या अन्य ? इसका जवाब प्राचार्य स्वयं क्या देंगे ? जसे पिता वन्दनीय है, तो उनका चित्र-प्रतिमा भी वंदनीयपूजनीय है / इसी तरह नमस्कार महामंत्र वंदनीय है, वैसे उनकी तस्वीर भी वंदनीय ही है / क्या स्थानकमार्गी नमस्कार महामंत्र की तस्वीर को थूक अथवा पैर लगाकर आशातना करेंगे? न्यायविशारद महाज्ञानी पूज्य यशोविजयजी उपाध्याय महाराज प्रभु के स्तवन में लिखते हैं कि ये जिन प्रतिमा जिनवर सरिखी, पूंजो त्रिविधे तुमे प्राणी / जिन प्रतिमा में संदेह न रक्खो, वाचक यश की वाणी / /
SR No.032834
Book TitleKalpit Itihas se Savdhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvansundarvijay, Jaysundarvijay, Kapurchand Jain
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year1983
Total Pages222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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