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________________ 74 गुणस्थान विवेचन (2) पुण्य व शरीरादि की क्रियाओं से ही मोक्ष होता है - ऐसा मानना विपरीत मिथ्यात्व है। (3) सब यथार्थ तथा अयथार्थ देव-शास्त्र-गुरु हमारे लिए वंदनीय हैं, उनकी पूजा, भक्ति, विनय करना चाहिए; ऐसा मानना विनय मिथ्यात्व है। (4) वीतरागता धर्म है या पुण्य धर्म है, ऐसे दोनों प्रकार के कथनों में से किसी भी एक पक्ष का निश्चय न होना; संशय मिथ्यात्व है। (5) न स्वर्ग है, न नरक है, न पाप है, न पुण्य है - इसलिए खाओ, पिओ, मजे में रहो; ऐसी मान्यता का नाम अज्ञान मिथ्यात्व है। 2. अगृहीत मिथ्यात्व और गृहीत मिथ्यात्व ऐसे दो भेद मिथ्यात्व के हैं। मिथ्यात्व कर्म के उदय के निमित्त से सातों तत्त्वों के विषय में अनादिकालीन विपरीत मान्यता को अगृहीत मिथ्यात्व कहते हैं। जैसे - अनादिकाल से शरीर में आत्मबुद्धि और पुण्य में धर्मबुद्धि। (1) अगृहीत मिथ्यात्व का नाश करने के लिए जड़-चेतन और स्वभाव-विभाव के भेदज्ञानपूर्वक निज शुद्धात्मस्वभाव का ज्ञान तथा भान होना अत्यंत आवश्यक है। वास्तव में तो निर्विकल्प रीति से निज शुद्धात्मा का स्वीकार होना ही सम्यक्त्व की प्राप्ति का अर्थात् मिथ्यात्व के त्याग का एकमात्र तथा यथार्थ उपाय है। (2) अनादिकालीन अगृहीत मिथ्यात्व का पोषक कुदेव-कुगुरु व कुधर्म का सेवन गृहीत मिथ्यात्व है। जैसे - अपनी मतिकल्पना से रागीद्वेषी देवी-देवताओं को कल्याणकारक मान लेना। इन दोनों में से प्रथम गृहीत मिथ्यात्व का त्याग करना आवश्यक है; क्योंकि नवीन अर्जित स्थूल अर्थात् गृहीतमिथ्यात्व के त्याग के बिना अगृहीत मिथ्यात्व भी नहीं छूटता एवं अनादि सूक्ष्म अगृहीत मिथ्यात्व के त्याग के बिना सम्यक्त्व की प्राप्ति भी नहीं हो सकती। सम्यक्त्व से ही धर्म का प्रारंभ होता है। ____ गृहीत मिथ्यात्व का त्याग करना मनुष्य के अपने अधीन है; क्योंकि उसको उसने अपने अज्ञान भाव से ही स्वीकार किया है। अतः अपने ज्ञान भाव से मनुष्य गृहीत मिथ्यात्व को छोड़ भी सकता है।
SR No.032827
Book TitleGunsthan Vivechan Dhavla Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain, Ratanchandra Bharilla
PublisherPatashe Prakashan Samstha
Publication Year2015
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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