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________________ मिथ्यात्व गुणस्थान अधिक हैं। इसलिए अज्ञानी को ऐसा भ्रम हो जाता है कि निमित्त अर्थात् कर्म ही जीव को बलजोरी/जबरदस्ती से विकार कराता है। जीव अपने विकारी अथवा अविकारी परिणामों को करने में पूर्ण स्वतंत्र है, स्वाधीन है। आत्मा बलवान है, कर्म बलवान नहीं है; इस महत्त्वपूर्ण विषय को यहाँ प्रथम गुणस्थान के प्रकरण में ही विस्तारपूर्वक स्पष्ट कर देते हैं, जिससे आगे के सभी गुणस्थानों में यथास्थान यथायोग्य समझ लेना सुलभ हो जाएगा। ___करणानुयोग की पद्धति निमित्त की मुख्यता से कथन करने की होती है। अत: उसकी भाषा ही ऐसी होती है कि “मिथ्यात्व कर्म के उदय से/ निमित्त की बलवत्ता से ही मिथ्यात्व गुणस्थान होता है।" ध्यान रहे, निमित्त-नैमित्तिक संबंध की अपेक्षा कथन तो होता है, कार्य नहीं होता है। कोई भी कर्म किसी भी जीव को जबरदस्ती से क्रोधादि विकारभाव नहीं कराता है। सदा विकाररूप अधर्म और अविकाररूप धर्म करने में जीव पूर्ण स्वाधीन है, स्वतंत्र है, कर्माधीन नहीं है। जब कर्म के उदय से जीव, नीचे के गुणस्थानों में गया या विकारी हो गया; ऐसा कथन पढ़ने में व सुनने में आवे तो समझ लेना चाहिए कि जीव अपने अनादि-कालीन कुसंस्कारों के कारण पुरुषार्थहीनता से ही पतित हुआ है, कर्म ने कुछ नहीं किया। मात्र उस काल में कर्म का उदय उपस्थित था। जब कर्म के अभाव से वीतरागता बढ़ गयी, जीव ने ऊपर के गुणस्थानों को प्राप्त किया; ऐसा कथन मिले तो वहाँ यह समझना चाहिए कि जीव ने स्वभाव के आश्रयरूप विशिष्ट पुरुषार्थ से नया विशेष धर्म प्रगट किया है। मिथ्यात्व के भेद - एकान्त, विपरीत, विनय, संशय, अज्ञान - ये मिथ्यात्व के पांच भेद हैं। मिथ्यात्व के पाँचों भेदों की परिभाषायें संक्षेप में निम्नप्रकार हैं - (1) जाति की अपेक्षा से जीवादि छह द्रव्य और संख्या की अपेक्षा से अनंतानंत द्रव्यों में से प्रत्येक द्रव्य अनंत धर्मात्मक होने पर अथवा परस्पर विरोधी दो धर्मात्मक होने पर भी उन्हें मात्र एक धर्मात्मक मानना. एकांत मिथ्यात्व है। जैसे - द्रव्य नित्य ही है, अथवा अनित्य ही है।
SR No.032827
Book TitleGunsthan Vivechan Dhavla Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain, Ratanchandra Bharilla
PublisherPatashe Prakashan Samstha
Publication Year2015
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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