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________________ गुणस्थान विभाजन तथा उसके होने पर जीव के स्वयमेव सम्यग्दर्शन होता है। और सम्यग्दर्शन होने पर श्रद्धान तो यह हुआ कि 'मैं आत्मा हूँ, मुझे रागादिक नहीं करना;' परन्तु चारित्रमोह के उदय से रागादिक होते हैं। वहाँ तीव्र उदय हो तब तो विषयादि में प्रवर्तता है और मन्द उदय हो तब अपने पुरुषार्थ से धर्मकार्यों में व वैराग्यादि भावना में उपयोग को लगाता है; उसके निमित्त से चारित्र मोह मन्द हो जाता है; - ऐसा होने पर देशचारित्र व सकलचारित्र अंगीकार करने का पुरुषार्थ प्रगट होता है। तथा चारित्र को धारण करके अपने पुरुषार्थ से धर्म में परिणति को बढ़ाये वहाँ विशुद्धता से कर्म की शक्ति हीन होती है, उससे विशुद्धता बढ़ती है और उस कर्म की शक्ति अधिक हीन होती है। इसप्रकार क्रमसे मोह का नाश करे तब सर्वथा परिणाम विशुद्ध होते हैं, उनके द्वारा ज्ञानावरणादिक का नाश हो तब केवलज्ञान प्रगट होता है। पश्चात् वहाँ बिना उपाय अघाति कर्म का नाश करके शुद्ध सिद्धपद को प्राप्त करता है।" ___ यदि कोई जीव मिथ्यात्व गुणस्थानवर्ती हो और भ्रम से अपने को सम्यग्दृष्टि अथवा पंचमादि गुणस्थानवर्ती मानता हो तो वह मोक्षमार्ग का पुरुषार्थ भी नहीं कर सकता; दुर्लभ मनुष्य जीवन भ्रम में व्यर्थ निकल जाता है। यदि यथार्थ निर्णय होता तो अच्छा ही है; उससे डरने की बात ही क्या है ? सच्चे उपाय का अवलंबन लेना श्रेष्ठ तथा श्रेयस्कर है। 5. प्रश्न : मिथ्यात्व गुणस्थान के अभाव करने का सच्चा उपाय क्या है ? उत्तर : जिनेंद्र कथित तत्त्वानुसार सदाचारी जीवनयापन करते हुए प्रथम सच्चे देव-शास्त्र-गुरु का यथार्थ ज्ञान करो। पश्चात् अध्यात्म शास्त्र के अध्ययन से आत्मस्वभाव का निर्णय करना। जिसे एक बार निज शुद्धात्मा का निर्णय हो जाता है, वह व्यक्ति स्वयमेव सम्यग्दर्शन आदि धर्म प्रगट करने की कला भी समझ लेता है। निज शुद्धात्म स्वभाव का स्वीकार होना ही सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र प्रगट करने का सच्चा-सरल
SR No.032827
Book TitleGunsthan Vivechan Dhavla Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain, Ratanchandra Bharilla
PublisherPatashe Prakashan Samstha
Publication Year2015
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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