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________________ 66 गुणस्थान विवेचन होता हो तो पाँचवां संयतासंयत गुणस्थान है; ऐसा नि:संकोच समझ लेना चाहिए। 4. यदि मात्र सच्चे देव-शास्त्र-गुरु की ही नि:शंक श्रद्धा हो, जीवन में सातों व्यसनों में से कोई व्यसन न हो; अन्याय, अनीति, अभक्ष्य का त्याग हो; जीवन में आगम कथित अष्टमूलगुणों का सहजरूप से पालन हो और मिथ्यात्व तथा अनंतानुबंधी कषाय परिणाम के अभावपूर्वक आत्मानुभूतिरूप अतींद्रिय आनन्द का स्वाद किसी के जीवन में आता हो तो अपने को चतुर्थ गुणस्थानवर्ती अविरतसम्यग्दृष्टि समझना चाहिए। ___ यदि देव-शास्त्र-गुरु का भी आगमानुसार लक्षण दृष्टि से यथार्थ और हार्दिक निर्णय न हो तो उसे सम्यक्त्व प्रगट करने की पात्रता ही नहीं है; तब फिर सम्यक्त्व होने का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता, वह तो गृहीत मिथ्यादृष्टि है। उसे आगम में तीव्र पापी अज्ञानी और मूढ अर्थात् मूर्ख कहा है। 4. प्रश्न : इस विवेचन से हम मिथ्यात्व गुणस्थानवर्ती हैं, ऐसा लग रहा है; ऐसी स्थिति में हमें सम्यक्त्व प्राप्त करने के लिये क्या करना चाहिए ? उत्तर : मिथ्यात्व गुणस्थान नहीं चाहते हो तो मिथ्यात्व का अभाव करके सम्यग्दृष्टि होने के लिए सात तत्त्वों का हेय, ज्ञेय तथा उपादेय बुद्धि से यथार्थ निर्णय करने का पुरुषार्थ करना चाहिए। यह भी एक अपेक्षा समझ लेना चाहिए कि चिंता करने की कुछ आवश्यकता नहीं है; क्योंकि जीवन में सच्चा निर्णय होना भी बहुत महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है। इस विषय के विशेष स्पष्टीकरण के लिए मोक्षमार्गप्रकाशक ग्रंथ का पृष्ठ क्रमांक 312 का निम्न अंश देखें - “तथा इस अवसर में जो जीव पुरुषार्थ से तत्त्वनिर्णय करने में उपयोग लगाने का अभ्यास रखें, उनके विशुद्धता बढ़ेगी; उससे कर्मों की शक्ति हीन होगी, कुछ काल में अपनेआप दर्शनमोह का उपशम होगा; तब तत्त्वों की यथावत् प्रतीति आयेगी। सो इसका तो कर्त्तव्य तत्त्वनिर्णय का अभ्यास ही है, इसीसे दर्शनमोह का उपशम तो स्वयमेव होता है; उसमें जीव का कर्त्तव्य कुछ नहीं है।
SR No.032827
Book TitleGunsthan Vivechan Dhavla Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain, Ratanchandra Bharilla
PublisherPatashe Prakashan Samstha
Publication Year2015
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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