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________________ 34 गुणस्थान विवेचन उपशम है। जैसे - कतक आदि द्रव्य के संबंध से जल में कीचड़ का उपशम हो जाता है। * परिणामों की विशुद्धता से कर्मों की शक्ति का अनुभूत रहना अर्थात् प्रगट न होना उपशम है। * उपशम मात्र दर्शनमोहनीय एवं चारित्रमोहनीय में होता है, अन्य किसी भी कर्मों में नहीं। * कर्मों की दस अवस्थाओं में उपशम करण नहीं है। * प्रशस्त-अप्रशस्त भेद उपशांत के नहीं है। 22. प्रश्न : प्रशस्त उपशम किसे कहते हैं ? उत्तर : (अ) अध:करणादि द्वारा उपशम विधान से (अनंतानुबंधी चतुष्क बिना) मोहनीय कर्म की जो उपशमना होती है, उसे प्रशस्त उपशम कहते हैं। इसे अंतरकरणरूप उपशम भी कहते हैं। (ब) आगामी काल में उदय आनेयोग्य कर्म परमाणुओं को जीवकृत परिणाम विशेष के द्वारा आगे-पीछे उदय में आनेयोग्य होने को अंतरकरणरूप उपशम कहते हैं। औपशमिक सम्यक्त्व में दर्शनमोहनीय का प्रशस्त उपशम ही होता है। 23. प्रश्न : अप्रशस्त उपशम किसे कहते हैं ? उत्तर : अप्रशस्त उपशम का दूसरा नाम सदवस्थारूप उपशम भी है। * वर्तमान समय छोड़कर आगामी काल में उदय आनेवाले कर्मों का सत्ता में पड़े रहने को सदवस्थारूप उपशम या अप्रशस्त उपशम कहते हैं। * उदय का अभाव ही अप्रशस्त उपशम है। * अनंतानुबंधी का अप्रशस्त उपशम ही होता है। * जो कर्म तीन करणों के बिना ही सत्ता में स्वयं दबा हुआ रहे, उसे अप्रशस्त उपशम कहते हैं। * सम्यग्दर्शन के समय जो तीन करण होते हैं, वे दर्शनमोहनीय कर्म के उपशम के लिए होते हैं, अनंतानुबंधी कषाय को दबाने के लिए नहीं; परन्तु
SR No.032827
Book TitleGunsthan Vivechan Dhavla Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain, Ratanchandra Bharilla
PublisherPatashe Prakashan Samstha
Publication Year2015
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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