SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 34
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मूल में जीव और उनके जड़ कर्म काम कर रहे हैं / कर्म के जरिए उन जीवों ने मिट्टी पाषाण आदि के व्यवस्थित रूप में अपने शरीर ही उत्पन्न किए है / ___एकेन्द्रिय जीव से पंचेन्द्रिय तक के जीवों के शरीर इसी प्रकार जीव, उनके कर्म एवं जड पदार्थों के सहकार से बनते हैं / जीव के सहकार बिना केवल जड़ का भी सर्जन होता है, जैसे कि संध्या के रंग, बादल का गर्जन, बाष्प, छाया, अंधकार आदि उत्पन्न होते हैं / फिर भी जीवों के जो व्यवस्थित शरीर उत्पन्न होते हैं वे उनके पूर्व कर्म के बिना नहीं / वे कर्म भी जीव ने अपने पूर्व जन्म में शरीर के द्वारा उत्पन्न किए हुए होते हैं / वे शरीर भी इसके पूर्व के जन्म के कर्म से बनते हैं / इस प्रकार शरीर और कर्म की धारा अनादि काल से चली आती है, शरीर से कम और कर्म से शरीर... / इसका तात्पर्य यह है कि संसार कभी शुरू नहीं हुआ है, किन्तु अनादि काल से चलता आया है / जैसे, बीज में से फल व फल में से बीज... | मुर्गी में से अंडा व अंडे में से मुर्गी... | यह धारा अनादि की है / इसके बदले कभी भी प्रारम्भ होने का आग्रह रखा जाए, तब बीज या फल दोनों में से एक को पैदा होनेका मानना होगा, और वह कारण के बिना ऐसे ही बन गया मानना पड़ेगा ! किन्तु कार्य-कारणभाव के सिद्धान्त अनुसार यह संगत नहीं, युक्तियुक्त नहीं है /
SR No.032824
Book TitleJain Dharm Ka Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2014
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy