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________________ प्रत्याख्यान, प्रतिज्ञा, विरति; यह विश्व को जैन धर्म की विशिष्ट देन है / इस में तत्त्व की सूक्ष्मता है, यह इस प्रकार है - पापकृत्यदुष्कृत्य करने-कराने व अनुमोदना करने से तो पाप लगता ही है किन्तु मन में पाप की अपेक्षा रखने से भी पाप लगता है / अगर हम प्रतिज्ञा नहीं लेते हैं तो मन में ऐसी अपेक्षा बनी रहती है कि "मैं यों तो पाप नहीं करूंगा, किन्तु भविष्य में अगर ऐसा कोइ अवसर आ जाए तो मुझे पाप करना पडे / इसलिए मैं प्रतिज्ञा नहीं लँ ऐसी पाप की अपेक्षा से भी पाप लगता है / माहणसिंह का एवं रानी-मंत्री का प्रतिक्रमण : (1) देहली में बादशाह फिरोझखां का जैन मन्त्री माहणसिंह प्रतिक्रमण योग में इतने चुस्त थे कि एकबार उनको बादशाह के साथ कहीं सवारी में जाना पड़ा / अरण्य के रास्ते में संध्या समय होते ही वे अरण्य में एक पेड़ के नीचे प्रतिक्रमण करने बैठ गए / बादशाह व लश्कर तो आगे बढ़ गया आगे छावनी पड़ी वहां बादशाह मंत्री को न देखने से, सैनिको द्वारा तलाश कराने पर पेड़ के नीचे से प्रतिक्रमण करते हुए मिले / बादशाह के पूछने पर उन्होने बताया कि 'हमारे जैनधर्म में उभयकाल के पापो के परिमार्जन हेतु उभय संध्या प्रतिक्रमण करना आवश्यक है !' 'क्या आपको डर नहीं लगा?' अरण्य में भी भगवान के चरणों 8 3018
SR No.032824
Book TitleJain Dharm Ka Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2014
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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