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________________ मान लो किसी व्यक्ति को बड़ा राज्य हस्तगत जैसा हो फिर वह जुआ खेलने की मूर्खता क्यों करे, वैसे मोक्ष मेरे अधिकार में होने पर भी में विषयों में सबडने की मूर्खता क्यों करूं? ऐसी शुभ विचार धारा से दुष्ट योगो के त्यागार्थ परिणाम भाव जाग्रत होते 2. उपायविचय :- 'अहो! शुभ विचार, वाणी, और वर्ताव को किस प्रकार मैं विस्तृत करूं कि जिससे मेरी आत्मा मोहपिशाच से सुरक्षित रहे' ऐसे संकल्प धारण करने से शुभ प्रवृत्तियों के स्वीकार की परिणति (सद्भावना) उभरती है / 3. जीवविचय :- इसमें जीव के अनादिपन, असंख्य प्रदेश, साकार-निराकार (ज्ञान, दर्शन) उपयोग, कृत्य कर्म के भोग की अनिवार्यता आदि स्वरूप का स्थिर चिन्तन किया जाता है / वह जड़ कायादि को छोडकर केवल स्वात्मा पर ममत्त्व करने के लिए उपयोगी है / 4. अजीवविचय :- इसका आशय है-पांच जड द्रव्य धर्म, अधर्म, आकाश, काल व पुद्गल द्रव्यों के क्रमशः गति-सहाय, स्थिति-सहाय, अवकाशदान, वर्तना, तथा रूप-रसादि गुणो व अनन्त पर्याय रुपता का चिन्तन करना / इससे शोक, रोग, व्याकुलता, निधन, देहात्मअभेद भ्रम आदि दूर होते है / 5. विपाकविचय :- कर्म की मूल उत्तर प्रकृतियों के मधुर एवं 8 2848
SR No.032824
Book TitleJain Dharm Ka Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2014
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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