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________________ आरंभ है / अनन्त का तात्पर्य है कि इसके बाद इस मोक्ष का अन्त नही / सिद्ध प्रवाहकी अपेक्षा से काल अनादि अनंत है / अनादि अनंत काल से सिद्ध होते आये हैं / (6) अंतर, - सिद्धावस्था से च्यवन पाकर दूसरे स्थान में जाकर यदि पुनःवापिस आकर सिद्ध हो, तो यह बीच में अंतर जो पड़ा उसको अंतर माना जाए / परंतु सिद्ध का कभी च्यवन नहीं होता सिद्ध होकर पुनःअसिद्ध (संसारी) होता ही नहीं है / अतः अंतरका अभाव है / (7) भाग, - कुल सिद्ध सर्व जीवों के अनन्त वे भाग में हैं। (8) भाव,-सिद्धों का केवलज्ञान-केवलदर्शन तथा सिद्ध- भाव क्षायिक भाव में हैं / (9) अल्पबहुत्व - सबसे कम नपुंसकत्व में हुए सिद्ध है / (जन्म से नपुंसक नहीं किन्तु कृत्रिम यानी बाद में हुए) / उनकी अपेक्षा संख्यातगुणा स्त्रीत्व से हुये सिद्ध हैं / उनसे भी संख्यात गुणा पुरूषरूप से हुए सिद्ध हैं / अधिक से अधिक कितनी आत्मा सतत ज्यादे से ज्यादे कितने समय तक सिद्ध होती हैं? 1 से 32 ...8 समय तक 73 से 84 ...4 समय तक 33 से 48 ...7 समय तक 85 से 96 ...3 समय तक 32 1570
SR No.032824
Book TitleJain Dharm Ka Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2014
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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