________________ 167 श्रीयतिदिनचर्या अवचूर्णियुता भिक्खासमए पुत्ति पेहिय ठाणंमि ठविय पत्ताई। आवसियाइ भणित्ता गोअरिआए विणिक्खमइ // 66 // भिक्षासमये-आहारग्रहणसमये लघुवन्दनकपूर्वं मुखवस्त्रिकां प्रतिलिख्य पुनः क्षमाश्रमणं दत्त्वा भणति-भगवन् ! पात्रकाणि स्थाने स्थापयामि ?, ततः पात्रकादि सुप्रमाW आवश्यकी भणित्वा गोचरचर्यां निष्क्रामति-निःसरति, उक्तं च - "पत्ते भिक्खासमये पणमिय पडिलेहिऊण मुहपोत्तिं / नमिऊण भणइ भयवं ! ठाणे ठावेमि पत्ताणि // 1 // पडिलेहिय सुपमज्जिय तत्तो पत्ताणि पडलजुत्ताणि / उग्गहिउं गुरुपुरओ उवओगं कुणइ संघाडो // 2 // एगाणियस्स दोसा इत्थी साणे तहेव पडणीए / भिक्खऽविसोहि महव्वय तम्हा सबिइज्जए गमणं // 3 // आवस्सियं भणित्ता गुरुणा भणियंमि तह य उवउत्तो / सिरिगोअमं सरित्ता सणियं क्खिविय तो दंडं // 4 // वाहवहनाडिपायं पढमं उप्पाडिऊण वच्चिज्जा / धरणियलं नो दंडं धरिज्ज जा लब्भए भिक्खं // 5 // " // 66 // अथ पात्रकाणि करे विधाय निःसरन् किं वदति तद् गाथायुगलेनाह - उसभस्स य पारणए इक्खुरसो आसि लोगनाहस्स / सेसाण य परमन्नं अमियरसरसोवमं आसि // 67 // अक्खीणमहाणसिलद्धिसंजुओ जयउ गोअमो भयवं / जस्स पसाएणऽज्जवि साहुणो सुत्थिया भरहे // 68 // तत्र साधुराहारार्थं गच्छन्नेतत् गाथाद्वयं पठति-उसभस्स-ऋषभस्य