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________________ नवमः सर्गः अनुवाद- "हे दया के धनी! यदि तुम मेरे मन को अपने चरणों में मग्न हुआ जान रहे होते, तो मुझपर भी क्यों दया न करते ?, किन्तु दूसरों के मन को ( अज्ञान-) अन्धकार में डुबो देने वाला विधाता (ही) उपालम्भ-योग्य है। तुम्हारे अपराध की बात कहाँ ?" // 98 // टिप्पणी-नल जो दमयन्ती की यातना से अनभिज्ञ है, उसका दोष वह उन पर नहीं, बल्कि विधाता पर दे रही है, जो लोगों को अज्ञानान्धकार में डाले रहता है। नल ऐसे निर्दय नहीं हो सकते हैं। विद्याधर यदि शब्द से असम्बन्ध में सम्बन्ध की कल्पना करके अतिशयोक्ति मान रहे हैं। साथ ही समालंकार भी कहते हैं, क्योंकि नल जब सभी पर दया करते हैं, तो तुल्यन्याय से दमयन्ती पर भी उनकी दया का होना स्वाभाविक था। 'दय' 'दया' में छेक अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / / 98 // कथावशेषं तव सा कृते गतेत्युपेष्यति श्रोत्रपथं कथं न ते ? / दयाणुना मां समनुग्रहीष्यसे तदापि तावद्यदि नाथ ! नाधुना // 19 // अन्वयः-'सा तव कृते कथावशेषम् गता' इति ते श्रोत्र-पथम् कथम् न उपैष्यति ? हे नाथ ! यदि अधुना न तदा अपि तावत् दयाणुता माम् समनुग्रहीष्यसे / टीका-सा दमयन्ती तव कृते त्वदर्थम् कथा नामोल्लेखः स्मृतिरिति यावत् एव अवशेषः अवशिष्टम् तम् ( कर्मधा० ) गता प्राप्ता मृतेत्यर्थः इति एतत् लोकमुखेभ्यः ते तव श्रोत्रयोः कर्णयोः पन्थानम् विषयत्वम् कथम् केन प्रकारेण न उपयति न प्राप्स्यति ? अपि तु उपैष्यत्येवेति काकुः त्वयि अनुरक्ता दमयन्ती स्वामप्राप्तवती सती जन्मान्तरेऽपि त्वत्प्राप्तीच्छया मृतेति त्वम् लोकात् श्रोष्यस्येवेति भावः / हे नाथ ! स्वामिन् ! यदि अधुना इदानीम् न समनुगृह्णसे, तदा तस्मिन् समये अपि तावत् इति संभावनायाम् व्यायाकृपायाः अणुना लेशेन (10 तत्पु० ) समनुग्रहीष्यसे अनुग्रहं करिष्यसे / दमयन्ती मम कृते मृतेत्यपि वदन् मा स्मरिष्यसि चेत् तदपि अहं आत्मानं धन्य-धन्यं मस्ये इति भावः।।९९।। ___व्याकरण-कथा /कथ् + अङ ( भावे ) + टाप् / अवशेष: अव + शिष् + घन ( भावे ) श्रोत्रम् यतेऽनेनेति Vश्रु + ष्ट्रन ( करणे ) / दया /दय + अङ् ( भावे) + टाप् /
SR No.032785
Book TitleNaishadhiya Charitam 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1979
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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