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________________ नषधीयचरिते अथ च उर्वश्यादि-देवाङ्गनासु तु किमु वक्तव्यमित्यर्थः / सूनानि पुष्पाणि आशुगा: बाणा, यस्य तथाभूतस्य ( ब० वी० ) कामस्येत्यर्थः इषोः बाणस्य (10 तत्पु०) मधुनः मकरन्दस्य सोकरेण बिन्दुना तव 'मम' इत्यस्य भाव इति ममता (10 तत्पु०) तद्रूपेण अक्षरेण (कर्मधा०) तु पुनः निर्वाति शाम्यति / त्वमस्मान् प्रति 'मम' इत्यक्षरद्वयं प्रयुज्य स्वस्याः स्वामित्वम् अस्माकं च स्वकीयत्वं चाङ्गोकुरु अस्मान वृणीष्वेति यावत् तत एवास्माकं कामज्वरो निवतिष्यते इति भावः // 100 // व्याकरण-अप्सरःसु इसके लिए पीछे सर्ग 7 श्लोक 92 अथवा सर्ग 2 श्लोक 104 देखिए। आशुगः आशु गच्छतीति आशु + गम् + ड / इषुः इष्यते ( क्षिप्यते ) इति/इष् + उ / अनुवाद-"(हे दमयन्ती ! तुम्हारे कारण हुआ हमारा काम-ज्वर अमृत की झीलों में नहीं शान्त होता, जल की झीलों और अप्सराओं में ( शान्त होने की बात ) तो करनी ही क्यों। किन्तु काम के ( पुष्प रूप ) बाण के मकरन्द की बिन्दु-रूप 'मेरे' ( हो) इस अक्षर से शान्त हो जायेगा" / / 100 // टिप्पणी-माव यह है कि 'तुम मेरे हो' इतना कहके हमें अपनालो, तो हमारा कामज्वर तत्काल शान्त हो जावेगा, जिसे क्या अमृत और क्या अप्सरायें कोई भी मिटाने में सक्षम नहीं। विद्याधर के शब्दों में-"अत्र कार्यकारण-विरोधाद् विषमोऽलंकारः" / यहाँ ज्वर का कारण-भूत इषु-रूप पुष्प अपने मधु-कण से विरुद्ध कार्य अर्थात् ज्वर-शमन करता हुआ बताया गया है / अप्सरःसु में श्लेष है। 'अप्सरःसु' शब्द का अप्सरा अर्थ करने में ( सुधासरःसु (अप:) सरःसु में ) यमक, किन्तु झील अर्थ करने में अन्त्यानुप्रास होगा, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। खण्डः किमु त्वगिर एव खण्डः किं शर्करा तत्पथशर्करैव। कृशाङ्गि! तद्भङ्गिरसोत्थकच्छतृणं नु दिक्षु प्रथितं तदिक्षुः // 101 / / अन्वयः-हे कृशाङ्गि! त्वगिरः खण्डः एव खण्ड: किमु ? तत्पथशर्करा एव शर्करा किमु ? ( यत् ) तद्भङ्गि....तृणम् तत् दिक्षु इक्षुः ( इति ) प्रथितम् न ? टीका-कृशम् तनु अङ्गम् शरीरम् ( कर्मधा० ) यस्याः तत्सम्बुद्धौ ( ब० बी० ) हे कृशाङ्गि ! तव गिरः वाण्याः खण्डः शकलम् ( उभयत्र 10 तत्पु० )
SR No.032785
Book TitleNaishadhiya Charitam 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1979
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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