SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 340
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 22 अष्टमः सर्गः अन्वयः-स्मर-ताप-दुःस्थः, वारिपः अपि हृदिस्थः निजः पतिः सम्प्रति यथा पयोनिधीनाम् तापाय भवति, तथा क्षुधितः वारिपः अपि हृदिस्थः अश्वा. मुखोत्थः शिखावान् ( पयोनिधीनाम् तापाय न भवति)। ___टोका-स्मरेण कामेन तापः कामजनितज्वरः इत्यर्थः ( तृ० तत्पु० ) तेन दुःस्थः ( तृ० तत्पु० ) दुःखं तिष्ठतीति तथोक्तः ( उपपद तत्पु० ) रुग्णः इत्यर्थः वारि जलम् पाति रक्षतीति तथोक्तः ( उपपद तत्पु० ) अपि हृदि हृदये तिष्ठतीति तथोक्तः ( अलुक समासः ) कुक्षिगत: निजः स्वकीयः पतिः स्वामी वरुणः सम्प्रति इदानीम् त्वद्विरहावस्थायामिति यावत् यथा येन प्रकारेण पयोनिधीनाम् समुद्राणाम् तापाय संतापाय भवति कल्पते समुद्रेभ्यः संतापं ददातीति यावत् तथा तेन प्रकारेण क्षुधितः बुभुक्षितः वारि पिबतीति यथोक्त: अपि हृदिस्थः मध्य स्थितः अश्वाया: वडवायाः मुखात् वक्त्रात् ( 10 तत्पु० ) उत्तिष्ठतीति तथोक्तः ( उपपद तत्पु०) शिखावान् अग्निः वाडवानल इत्यर्थः पयोनिधीनां तापाय न भवतीति पूर्वतोऽनुवर्तते / समुद्रमध्यस्थितो वाडवानल: जलभक्षकोऽपि सन् समुद्रान् तथा न तापयति यथा जलरक्षकोऽपि सन् वरुणः दमयन्तीविरहज्वरकारणात् इदानी तान तापयतीति भावः // 81 // व्याकरण-दुःस्थः दुःखं यथा स्यात् तथा तिष्टतीति दुर् + /स्था + क / वारिपः वारि पाति पिबति वेति /पा + क / शिखावान् शिखा ( ज्वाला) अस्यास्तीति शिखा + मतुप् / पयोनिधीनाम् पयांसि निधीयन्तेऽत्रेति पयस् + नि+ /धा - कि ( अधिकरणे)। अनुवाद-“काम-ज्वर से बीमार पड़ा हुआ, जल का रक्षक होता हुआ भी, भीतर बैठा निज स्वामी ( वरुण ) इस समय जिस तरह समुद्रों को संताप दे रहा है, वैसा भूखा पड़ा हुआ, जल का भक्षक होता हुआ भी, भीतर बैठा बड़वानल समुद्रों को संताप नहीं देता" / / 81 // टिप्पणी-यहाँ नल समुद्र-मध्यस्थित वरुण और बड़वानल की तुलना करता हुआ वरुण को वड़वानल की अपेक्षा समुद्रों का ताप-जनक बता रहा है / उसका कारण है वरुण को हुआ पड़ा दमयन्ती का विरह-ज्वर / वरुण और बड़वानल-दोनों समान रूप से वारिप है, और हृदिस्थ भी हैं, किन्तु रक्षक ताप दे रहा है भक्षक नहीं, क्योंकि रक्षक वरुण को कामज्वर है, भक्षक बड़वानल को नहीं है। भाव यह निकला कि ज्वर प्रतप्त, जलमध्यस्थित वरुण
SR No.032785
Book TitleNaishadhiya Charitam 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1979
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy