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________________ नैषधीयचरिते अयमेत्य तडागनीरजैलंघु पर्यवियताथ शङ्कितैः / उदडीयत चैकृतारकरग्रहजादस्य विकस्वरस्वरैः // 5 // भन्वयः-अयम् तडाग नीडजैः लघु एत्य पर्यवियत। अथ अस्य करग्रह जात् वैकृतात् शकितैः ( अत एव ) विकस्वरस्वरैः उदडीयत / टीका-अयं हंसः तडागस्य सरसः नीड जैः पक्षिमिः ( 10 तत्पु०) ('नीडोद्भवा गरुत्मन्तः' इत्यमरः) लघु शीघ्र यथा स्यात्तथा (लघु क्षिमित्यमरः ) एत्य आगत्य पर्यवियत / परिवृतः परिवेष्टित इति यावत् अमवत् / अथ परिवेष्टनानन्तरम् अस्य हंसस्य करेण नलहस्तेन य: ग्रहः ग्रहणं (तृ० तत्पु०) तस्मात् जायते इति तथोक्तात् तदुत्पन्नात् ( उपपद तत्पु० ) वैकृतात् पक्षायाम् उन्नतावनतत्वरूपात विकारात् शङ्कितैः जातशङ्कः भीतैरिति यावत , अत एव विकस्वरः तारः उच्चरित्यर्थः स्वरः शब्दः (कर्मधा० ) येषां तथाभूतैः ( ब० बी० ) सद्भः उदडीयत उड्डानम् // 5 // ग्याकरण-नीडजैः नीडेषु जायन्ते इति नीड +/जन् +डः ( कर्तरि ) नोडजाः। एत्यVण + ल्यप् / पर्यवियत-परि++लङ् ( कर्मधा० ) / ग्रहः /ग्रह +अच् ( मावे ) / वैकृतात् विकृतम् वि+V+क्तः ( मावे ) एव वैकृतम् विकृत+अण ( स्वार्थे ) / विकस्वरविकसतोति वि+/कस् +वर च् ( कर्तरि ) / उदडीयत-उत्+/डो+लङ ( भाववाच्थे ) / अनुवाद-यह ( हंस ) सरोवर के पक्षियों द्वारा शीघ्र ही आकर घेर दिया गया। बाद में (और ) जोर-जोर से शब्द करते हुए वे उड़ गये // 5 // टिप्पणी-पक्षि-स्वमाव वर्णन करने से स्वभावोक्ति पूर्ववत् यहाँ भी चली आ रही है। किन्तु नारायण भोर विद्याधर 'करग्रहजादिति श्लिम' यह कहकर 'तीर्थादौ कर ग्रहणार्थ कश्चित् कश्चन परितो वेष्टयते। अथ बलिग्रहणजात् कलहादेः शङ्कितैरुच्चैः स्वरैर्गम्यते अर्थात् तीर्थ आदि में कर (दान) लेने के लिए कुछ लोग ( दानग्रहीता ) किप्ती दानी को घेर लेते हैं और दान लेते समय के हल्ले-गुल्ले से डरे चीखते-चिल्लाते भाग जाते हैं, यह दूसरा अर्थ भी निकालते हैं; किन्तु हमारे विचार से केवल एक ही श्लिष्ट कर-शब्द से इतना लम्बा सारा अप्रस्तुत अथ निकालना खचातानी हो है। इसके लिए 'अधिगत्य' इस आदि श्लोक की तरह इस श्लोक को भी सारा श्लिष्ट होना चाहिए था। दूसरे कर शब्द का अर्थ दान न होकर राजस्व ( टैक्स ) होता है / भिखारियों को भला दानी से काहे का टैक्स लेना है। अस्तु, उनके भतानुसार यहाँ उपमा ध्वनि हो सकती है / 'वैकृ' 'विक', 'स्वर' स्वरैः' में छेकानुप्रास और भन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। वहतो बहुशवलक्ष्मतां धृतरुद्राक्षमधुव्रतं खगः / स ननस्य ययौ कर पुनः सरस: कोकनभ्रमादिव // 6 // अन्धयः-स खगः पुनः बहु-शैवर.क्षमताम् वहतः सरसः कोकनद भ्रमात् इव ( बहु शैव लक्ष्मता वहतः ) नलस्य धृतरुद्राक्ष-मधुव्रतं करं ययौ / टीका-स खगः पक्षी हंस इत्यर्थः पुनः मुहुः बहूनि शैवलानि शैवालानि ( कर्मधा० ) यस्यां
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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