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________________ नषधमहाकाव्यम् / भाव ) वाली ( पक्षा०-रेशमी डोरे के समान चन्द्रावरणवाली ) लालिमाको छोड़ रहा है। [जिस प्रकार बालक लटुको डोरेमें लपेटकर फेंकता है तो वह नाचते समय क्रमशः लाल डोरे के लिपटावको छोड़ते-छोड़ते अपने प्राकृत श्वेत आदिके रूपमें दीखने लगता है, उसी प्रकार मानो प्रदोषकालरूप बालकसे रेशमी डोरेमें लपेटकर फेंका (नचाया ) गया / चांदीके बने लट्टू के समान यह चन्द्रबिम्ब अपने आप रूप ( लालिमा ) को क्रमशः छोड़ रहा है। सामान्य वर्गके लड़कोंका लटू काष्ठका तथा डोरा सामान्य सूतका होता है, किन्तु प्रदोषकालरूप धनिक बालकके चन्द्ररूप लटुको चांदीका तथा चन्द्रावरणरूप डोरेको रेशमी सूत का होना उचित ही है ] // 51 // ताराक्षरैर्यामसिते कठिन्या निशाऽलिखद्वयोम्नि तमःप्रशस्तिम् / विलुप्य तामल्पयतोऽरुणेऽपि जातः करे पाण्डुरिमा हिमांशोः / / 52 / / तारेति / निशाऽसिते श्यामे ब्योग्नि गगन एव कज्जलादिलिप्तश्यामलपट्टिकायां कठिन्याः .शुभ्रधातुविशेषस्य सम्बन्धिभिस्ताराक्षः शुभैरपरैरिव नक्षत्ररूपैरक्षरैः कृत्वा यां तमःप्रशस्ति तमोवर्णनश्लोकादिलिपिमलिखत् / तारातरैरुपलक्षितां यां तमःप्रशस्ति रात्रिः कठिन्यालिखदिति वा / तां लिपि विलुप्य प्रोन्छयाल्पयतः परि. मेयताराक्षरां कुर्वतो हिमांशोररुणेऽपि करे किरणे, अथ च-पाणी, पाण्डुरिमा जातः। प्ररूढ करणे हि चन्द्रे नक्षत्राणामल्पता भवतीति खटिकालिखिताक्षराणि मार्जयत. श्चारक्तोऽपि करः खटिकासगावलो भवतीति / तमसि नक्षत्राणि बहून्युज्वलतराणि च दृष्टानि, चन्द्रे तूदितेऽल्पानि निष्प्रभाणि च जातानि, चन्द्रश्च धवलो जात इति भावः // 52 // रात्रिने कृष्णवर्ण आकाश ( पक्षा०-कज्जली आदिसे कालो पाटी या स्लेट ) पर नक्षत्र. रूपी ( पक्षा०-बड़े-बड़े ) अक्षरोंसे उपलक्षित अन्धकार के जिस प्रशस्तिको खड़िया ( चॉक ) से लिखा था, उसे मिटाकर थोड़ा ( परिमिताक्षर ) करते हुए चन्द्रमाको रक्तवर्ण किरणों ( पक्षा०-हाथ ) में भी सफेदी हो गयी है। [ जिस प्रकार काली पाटोपर खड़ियासे लिखे गये अक्षरों को मिटानेवाला लाल हाथ श्वेत हो जाता है, उसी प्रकार रात्रिद्वारा काले आकाशरूप पाटोपर खड़िये से लिखो गयी नक्षत्र रूप अक्षरवालो अन्धकारप्रशस्तिको लाल किरणों से मिटाकर थोड़ो करती हुई चन्द्र किरण भो श्वेत हो गयी है। चन्द्रादयके पहले बहुत ताराएँ था, वे चन्दोदय होनेपर कम हो गयी हैं ] // 52 // सितो यदाऽत्रैष तदाऽन्यदेशे चकास्ति रज्यच्छविरुजिहानः / तदित्थमेतस्य निधेः कलानां को वेद वा रागविरागतत्त्वम् ? / / 53 / / सित इति / एष चन्द्रा यदा यस्मिन्काले अत्र देशे सितो धवलश्चकास्ति, तदा तस्मिन्नेव काले अन्यदेशे रज्यच्छवी रक्तकान्तिजिहान उदयन् शोभते / एवमत्रो. दयन्त्रक्तः, अन्यत्र च श्वेत इत्यपि सामाभ्यम् / एतद्देशस्थं प्रतीदानी सितो
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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