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________________ द्वाविंशः सर्गः। 1525 दीप्रं प्रकाशमानमम्बरस्य मणिं सूर्यमादत्त जग्राह / तदलीकं हेम क्षणमात्रेण पाण्डु शुभं रजतं खलु रूप्यमिव जातम् / धूर्तो हि रूप्यं लेपादिभिरुपलिप्तं सुवर्णीकृत्य ददाति, वस्त्रान्तरस्थमपि प्रसरहीप्तिकं रत्नं च गृह्णाति / उदयानन्तरमतिक्रान्त कियत्कालवादक्तिमान परित्यज्य चन्द्रो रूप्यवद्धवलो जात इति भावः / घान्तोऽत्र 'साय' शब्दः 'सायं' शब्दसमानार्थः॥५०॥ _____ सायङ्कालरूप धूर्तने इस ( आकाश ) के लिए ऊपर में लेप (कलई ) करने अर्थात् सुनहला पानी चढ़ानेसे लाल चन्द्ररूप नलकी सोदेको देकर चमकते हुए आकाशके रत्न ( रूप सूर्य) को ले लिया, तथा वह ( रंगा गया चन्द्ररूप नकली सोना ) क्षण ( थोड़ी देर ) में श्वेत वर्ण चांदी हो गया। [लोकमें भी कोई धूर्त चांदीके ऊपर सोनेका पानी चढ़ाकर किसी अजानके लिए देकर चमकते हुए रत्नको ले लेता है और वह पानी चढ़ाया हुआ चाँदीरूप नकली सोना थोड़ी देर बाद श्वेत हो जाता है / सायङ्कालको धूर्त व्यक्ति, उदयकालके रक्तवर्ण चन्द्रको पानी चढ़ाया हुआ नकली सोना तथा सूर्यको बहुमूल्य रत्न, तथा कुछ समय बाद श्वेत वर्ण हुए चन्द्रमाको प्रकृतावस्थापन्न चांदी होनेकी कल्पना की गयी है ] // 50 // बालेन नक्तंसमयेन मुक्तं रौप्यं लसडिम्बमिवेन्दुबिम्बम् / भ्रमिक्रमादुज्झित पट्टसूत्रनेत्रावृति मुञ्चति शोणिमानम् / / 51 / / ___ बालेनेति / हे प्रिये ! रौप्य राजतं रजतमयं लसद्विलसमानं डिम्बं बालक्रीडा. साधनं भ्रमरकमिवेन्दुबिम्बं कर्तृ भ्रमिक्रमाद् भ्रमणपरिपाट्या, अथ च,-ऊर्ध्वदेशगम. नक्रमेणोज्झिता त्यक्ता या पट्टसूत्रस्य नेत्रं दोरकस्तस्कृता आवृतिवेष्टनं तद्रूपम्, अथ च,-पट्टसूत्रजालिकावत् चन्द्रावरणं येन तं शोणिमानं रक्तिमानं मुश्चति / किंभूत. मुभयम् ? नक्तंसमयरूपेण बालेन, अथ च,-बालेन प्रदोषरूपेण, रात्रिसमयेन मुक्तं भ्रमणार्थ करात् कृतमोचनम् , अथ च-उद्गीणं जनितोदयम् / शिशुक्रीडासाधनं हि भ्रमरकं काष्ठमयं भवति / ईश्वराणां च डिम्बं समृद्धयतिशयाद्राजतं पट्टसूत्रवलित. दोरकस्रंसनात्तत्संबन्धजातं रक्तिमानं मुञ्चति / तथेदं चन्द्रबिम्बमपीत्यर्थः / इदानीं चन्द्रो धवलो जात इति भावः / 'नेत्रावृतेः-' इति पाठे-भ्रमिक्रमाद्धेतोरुज्झिता या पट्टसूत्रनेत्रावृतिस्तस्या हेतोः शोणिमानं मुञ्चति / उज्झिता डिम्बेनैव पट्टसूत्रः नेत्रावृतियंत्र तादृशाद् भ्रमिक्रमाद्धेतोरिति वा डिम्बं लटू इति वा राष्ट्रभाषायां भ्रमरकस्य संज्ञा / राष्ट्रभाषायां च भवरा' इति संज्ञा / रौप्यं, संबन्धे विकारे वाण। 'ने मन्थगुणे वस्त्रे' इत्यभिधानात् 'नेत्र' शब्दो यद्यपि मन्थवेष्टनगुणे मुख्यः तथाप्यत्र गुणमात्रपर इति ज्ञेयम् // 51 // बालक रात्रिसमय अर्थात् प्रदोषकाल ( पक्षा-रात्रि-समयरूप, धनिकके ) बालकके द्वारा छोड़े ( नचाये ) गये चांदीके बने हुए शोभमान लट्ट ( नचानेका भँवरा ) नामक खिलौनेके समान चन्द्रबिम्ब घूमनेके क्रमसे छोड़े गये रेशमी डोरीके लिपटाव ( लपेटने के
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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