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________________ एकविंशः सर्गः। 1423 कामदेवके बाणोंसे नहीं मरूं, ( अन्यथा कामदेवके भी देव-विशेष होनेसे देवतासे नहीं मरनेका ब्रह्मासे मिला हुआ वरदान असत्य हो जायेगा इस कारण ) देवतासे नहीं मरनेका वरदान-वचनको सत्य करता हुआ रावण अपने (शरीर ) को आपके शस्त्रोंसे (आहत कराकर ) पवित्र किया। [ यदि रावण सीताको आपके लिए वापस दे देता तो वह कामबाणोंसे पीडित होकर अवश्य मर जाता और इस अवस्थामें देवतासे नहीं मरनेका दिया हुआ ब्रह्माका वरदान असत्य हो जाता, मानो इसीलिए रावणने सीताको आपके लिए नहीं लौटाकर अपनेको आपके बाणोंसे मरवाया / कामदेवके बाणोंसे मरनेपर तो परस्त्रीकामनासे मरने के कारण दुःखदायिनो मृत्यु होगी तथा रामके बाणोंसे मरनेपर सद्गति प्राप्ति होगी, यह मी 'अपुनात्' पदसे ध्वनित होता है ] / / 70 / / तद्यशो हसति कम्बुकदम्बं शम्बुकस्य न किमम्बुधिचुम्बि ? | नामशेषितससैन्यदशास्यादस्तमाप यदसौ तव हस्तात् / / 71 // तदिति / हे राम ! विष्णो! नाम संज्ञामात्रम्, शेषः अवशेषः यस्य स ताहशः कृतः इति नामशेषितः कथामावशेषीकृतः, ससैन्यः सैन्यसहितः, दशास्यः रावणः येन तस्मात् , तव भवतः, हस्तात् करात् , असौ शम्बुकः, यत् अस्तम् अदर्शनम, नाशमित्यर्थः / आप लेभे, शम्बुकस्य तदाख्यशूद्रमुनिविशेषस्य, अम्बुधिचुम्बि सागरपर्यन्तगामि, तत् पूर्वोक्तरूपम, यशः कीर्तिः कत्तु / कम्बूनां शङ्खानाम्, कदम्बं समूहम् कर्म / न हसति किम् ? न परिहसति किम् ? अपि तु हसत्येव इत्यर्थः, स्वशुक्लताऽऽतिशयादिति भावः / यस्य हस्तात् ब्रह्मकुलोद्भवः त्रिभुवनविजयी दशाननो विनाशमाप, तस्यैव हस्तात् नीवशूदकुलोद्भुतः दुर्बलः शम्बुका विनष्ट इति शम्बुकस्य महासौभाग्यमिति भावः // 71 // . सेनासहित रावणको नामशेष करने ( मारने ) वाले, आपके हाथसे जो 'शम्बुक' नामक शुदमुनि नष्ट हुआ (मारा गया), वह शम्बुकका समुद्रतक विस्तृत यश शङ्ख-समूहको नहीं हँसता है क्या ? / अथच-जलशुक्तिका श्वेतत्व समुद्रस्थ शङ्ख-समूहके श्वेतत्वको हँसता ( उनके समान होता ) है, अत एव उसका यश होना उचित ही है। [जिस राम. हस्तने त्रिभुवनविजयी, ब्राह्मणकुलोत्पन्न रावणको सेनाके सहित मारा, उसी रामहस्तने धूम्रपान करनेवाले मुनिरूपधारी शूद्रकुलोत्पन्न 'शम्बुक'को मारा, अत एव उसको महाभाग्यवान् होने से उसका स्वच्छ . यश समुद्रतक फैल गया है। बड़े वीरोंका विजयी यदि किसी छोटेपर पिजय पाता है तो उस विजेताका यश नहीं होता, किन्तु उस छोटे विजित व्यक्तिका ही यश होता है ] // 71 // ( मृत्युभीतिकरपुण्यजनेन्द्रत्रासदानजमुपायं यशस्तत् / हीणवानसि कथन्न विहाय क्षुद्रदुर्जनभिया निजदारान् // 4 // ') - 1. अयं श्लोकः 'प्रकाश' व्याख्ययैव सह स्थापितोऽत्र /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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