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________________ एकविंशः सर्गः। 1421 इत्यर्थः / न नास्ति / कुत इत्याशयेन हेतुमाह-येन हेतुना, हे देव ! तव ते, वैभवमेव ऐश्वर्यमेव, प्रभाव एवेत्यर्थः / दूषणस्य असाङ्गस्यादिदोषस्य तदाख्यराक्षसविशेषस्य च, प्रशमनाय निवारणाय निधनाय च, समर्थ योग्यम् , भवतीति शेषः / स्वयम् / अजस्त्वम् अजस्य पुत्रात् जायसे, अत्र यः अजः स कथं जायते ? यस्य पितामहोऽपि न जातः तस्य वा कथं तनुजः ? कथं बा तस्मात् तनुजात् तव जन्म सम्भवेत् ? इत्यादिरूपं दूषणं नास्ति, यतः दूषणनाशायैव तव उत्पत्तिः, अथ च अजाख्यात् पितामहात् अजपौत्रः जात इत्यत्र दूषणं नास्ति, उभयोः अजाख्यनृपजातत्वात् इति भावः // 67 // __ हे अज ( उत्पत्तिरहित रामचन्द्र)! अज ( रघुतनय ) के पुत्र अर्थात् दशरथसे उत्पन्न होवो ( या-यथेष्ट उत्पन्न होवो ), हे जगदलङ्कार ! इस (अजको भी उत्पन्न होने ) में दोष ( असङ्गति दोष ) नहीं है, ( क्योंकि जिसका पितामह 'अज' अर्थात् अनुत्पन्न है, उसका पुत्र भी उत्पन्न कैसे कहा जायेगा तथा इसीसे पौत्र भी सुतराम् उत्पन्न नहीं हो सकता, अत एव इस मब उत्पन्न होने के कथनको स्वेच्छा-विलसितमात्र होनेसे इसमें कोई दोषलेश नहीं है / अथच-'अज' ( छाग ) के पुत्र एवं पौत्र 'अज' जातीय ही होंगे, इसमें कोई दोषलेश नहीं है / अब उत्तरार्द्धसे मो उक्त दोषलेशामावका ही समर्थन कर रहे हैं-) जिस तुम्हारा ऐश्वर्य अर्थात् प्रभाव ही दोषों (पक्षा०-'दूषण' नामक राक्षस) के नाशके लिए है ( जिस 'राम' नामके स्मरणमात्रके प्रभावसे जन्मजन्मान्तरके दोष नष्ट हो जाते हैं ), रेसे आपमें दोषलेशको सम्भावना कैसे हो सकती है ? ( अथच-'आपका अवतार ही दूषण, आदिसे लेकर रावण तक राक्षसों के नाशके लिए है, इस कारण आप परशुरामके अवतारकाल त्रेतायुगमें ही रामावतारसे प्रकट होवें' इसमें कोई पुनरुक्त दोष नहीं है ) // 67 // नो ददासि यदि तत्त्वधियं मे यच्छ मोहमपि तं रघुवत्स ! / येन रावणचमूयुधि मूढा त्वन्मयं जगदपश्यदशेषम् / / 68 // नो ददासीति / रघुवत्स ! हे रघुनन्दन ! विष्णो ! मे मह्यम् , यदि चेत् , तत्त्वे ब्रह्मणि, धियं बुद्धिम् , मोक्षोपयोगिज्ञानमित्यर्थः / नो न, ददासि यच्छसि, अज्ञा. नाच्छन्नत्वादिति भावः / तर्हि येन मोहेन, युधि युद्धे, रावणस्य दशाननस्य, चमः सेना. मूढा भ्रान्ता सती, अशेषं निखिलम् , जगत् विश्वम् , त्वन्मयं भवदात्मकम् , राममयमित्यर्थः / अपश्यत् ऐक्षत, तं मोहमपि मुग्धतामपि, भ्रमज्ञानमपीत्यर्थः / मे मह्यम् , यच्छ देहि, तेनैव कृतार्थो भवेयमिति भावः // 68 // हे रघुनन्दन ! यदि आप मेरे लिए ( मोक्षसाधक ) तत्त्वज्ञानको नहीं देते हैं तो उस मोहको ही दें; जिस ( मोह ) से मोहित रावणसेना ने सम्पूर्ण संसारको ही राममय (भयके कारण रामात्मक ) देखा // 68 // 1. 'रघुवीर' इति 'प्रकाश'सम्मतः पाठः।
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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