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________________ विंशः सर्गः। 1326 . है। [इस दमयन्तीने रात्रिमें मेरा चुम्बन किया था, किन्तु इस समय दिन होनेके कारण मेरा चुम्बन नहीं कर रही है, अतः चुम्बन नहीं करने में यह दिन जो अपराध कर रहा है, उसे क्षमा करने के लिए तुम्हारी सखी ( दमयन्ती ) तैयार होवे अर्थात् दिनके अपराधको क्षमा कर दे] // 54 // दिनेनास्या मुखस्येन्दुः सखा 'यदि तिरस्कृतः / तत्कृताः शतपत्त्राणां तन्मित्राणामपि श्रियः // 55 // अथ दिनं किमस्या अनिष्टकारि ? इत्यपेक्षायामाह-दिनेनेति / दिनेन अह्रा, अस्याः वः सख्याः, मुखस्य वदनस्य, सखा मित्रम्, सहशत्वादिति भावः / इन्दुः चन्द्रः, यदि यद्यपि, तिरस्कृतः अवज्ञातः, सूर्योदयेन निष्प्रभीकरणात् तुच्छीकृतः इत्यर्थः / इति हेतोः दिनम् अपराधि इति उच्यते यदि इति भावः। तर्हि तस्य मुखस्य, मित्राणां सखीनाम् , सदृशानामित्यर्थः। शतपस्त्राणां बहूनां पद्मानाम् , श्रियः अपि शोभाः अपि, विकाशनेनेति भावः। तत्कृताः तेन दिनेन सम्पादिताः दिनेन एतन्मुखस्य एकस्य सख्युरिन्दोरपकारे कृतेऽपि अनेकेषां मित्राणां कमलाना. मुपकारोऽपि कृतः ।राच्या तु केवलं चन्द्र एव उपकृतः, तत् बहूपकारिणः एकोऽप. राधो न गणनीयः, अतः दिनेऽपि चुम्बनमुचितमिति भावः // 55 // यदि दिनने इस ( दमयन्ती ) के मुखके मित्र ( समानालादक होनेसे सुहृद् ) चन्द्रमाको तिरस्कृत ( पक्षा०-निष्प्रभ ) किया है तो ( दमयन्तीके मुखके समान होनेके कारण ) उस ( मुख ) के मित्र कमलोंकी शोमा ( पक्षा०-सम्पत्ति ) को भी उसी (दिन ही) ने किया है। [ अत एव मुखके एक मित्र चन्द्रमाका अहित करनेपर भी उसी मुखके अनेक मित्र कमलोंका हितकरने के कारण दिनका कोई अपराध नहीं है, अत एव दिनमें भी आप चाहें तो सखी चुम्बन कर सकती है अथवा-... ...'तत्कृत्ताः' पाठा०-उस (दिन ) के मित्र कमलोंकी या-मित्रोंके सैकड़ोंके वाहनोंकी शोभा ( पक्षा०-सम्पत्ति ) का उच्छेद भी तो चन्द्रमाने किया है ( अत एव दिनका किया हुआ अपराध छोटा तथा उसके प्रतिकारमें चन्द्रमाका किया हुआ . अपराध बड़ा है, अतः दिनका अपराध नगण्य है। अथवा-..."उस ( मुख ) के मित्र कमलोंकी शोभा उस ( दिन ) के द्वारा ही नष्ट हुई है (क्या ) ? अर्थात् नहीं, कमलोंकी शोभाको तो चन्द्रने प्रतिकारस्वरूप नष्ट किया है, अत एव दिनका अपराध नगण्य है / अथवा-....""उस (दिन ) के मित्र कमलोंकी शोभाको भी तो ( मुखापेक्षा होनकान्ति होनसे ) उस ( दमयन्तीके मुख ) ने ही नष्ट किया है, ( अत एव दमयन्तीके मुख) ने दिनके द्वारा किये गये अपने मित्र चन्द्रमाके श्रीनाशका प्रतिकार उस दिन के बहुतसे मित्रोंका श्रीनाश करके कर दिया है, इस कारणसे अब दिनका उक्तापराध नगण्य है ] / / 55 // लज्जितानि जितान्येव मयि क्रीडितयाऽनया / प्रत्यावृत्तानि तत्तानि पृच्छ सम्प्रति कं प्रति ? / / 56 //
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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