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________________ 1316 नैषधमहाकाव्यम् / बिभर्तु ? धारयतु ? न कुत्रापीत्यर्थः / उच्चकुचाभ्यां व्यवहितेनैव मया स्थीयते, न तु हृदयेन ध्रियते इति भावः / अत्रापि निन्दाच्छलात् स्तुतिः // 35 // स्थूल ( विशाल ) स्तनोंसे व्याप्त तथा हमारे विषयमें निर्दय इस ( दमयन्ती) के हृदयमें लेशमात्र मी अवकाश ( ठहरनेका स्थान ) नहीं है, अत एव यह मुझे कहाँ धारण करे ? / [इस दमयन्तीके हृदयका बाह्य भाग बड़े स्तनोंसे व्याप्त है, अतः मेरे लिए इसके हृदयके बाहर ठहरनेका स्थान नहीं है तथा इसका हृदय भीतरमें मेरे प्रति निर्दय है अत एव भीतरमें भी मेरे लिए स्थान नहीं है; अत एव इस दमयन्तीके हृदयमें बाहरी या भीतरीकहीं भी मुझे ठहराने के लिए लेशमात्र भी स्थान नहीं है, अथ च-विशाल स्तन होने से इसका आलिङ्गन करते समय मैं इसके वक्षःस्थलसे ऊपर ही रह जाता हूँ और निर्दय होनेसे मोतर स्थान है ही नहीं, इस प्रकार नलने दमयन्तीकी निन्दा तथा उच्च स्तनका वर्णन कर प्रशंसा की है ] // 35 // अधिगत्येहगेतस्या हृदयं मृदुतामुचोः / प्रतीम एव वैमुख्यं कुचयोयुक्तवृत्तयोः / / 36 // अधिगत्येति / एतस्याः भैम्याः, हृदयम् , अन्तःकरणम् , ईदृक् निर्दयत्वात् ईदृशं कठिनम् , अधिगत्य ज्ञावा, इवेति शेषः / मृदुतामुचोः कोमलतात्यागिनोः, ता. भूतकठिनहृदयसंसर्गात् स्वयमपि तावत् काठिन्यभाजोः इत्यर्थः। अन्यथा कठिने मृदुताचरणे दुर्नीतिरिति भावः / अत एव युक्तवृत्तयोः युक्तम् उचितम्', वृत्तं व्यवहारः ययोस्तादृशयोः, कठिने कठिनव्यवहारस्य औचित्यात ; अन्यत्र-युक्तौ पीलत्वात् मिथः संश्लिष्टौ, वृत्तौ वत्त लौ च तयोः युझवृत्तयोः / विशेषणसमासः / कुचयोः स्तनयोः, अपीति शेषः, वैमुख्यमेव कठिनात हृदयात् विपरोतमुखत्वमेव औदासीन्यमेव च, प्रतीमः जानीमः; एतस्याः निर्दयात कठिनात् हृदयात् स्वाङ्गभूती सद्वृत्ती कुचावपि विसुखी जातो, वयन्तु वाह्याः तत्र निवेष्ट कथं शक्नुमः ? इति भावः; यद्वा-वमुख्यमेव मयि पराङ्मुखत्वमेव, तुङ्ग तया आलिङ्गनविघ्नजन. नादिति भावः, अन्यत्र-विगतमुखत्वमेव, नवोद्भिन्नत्वात् वृन्तहीनतया मनोज्ञ. मेवेति भावः // 36 // इस ( दमयन्ती ) के हृदय को ऐसा ( कठिन ) जानकर ('शठे शाठ्यं समाचरेत्' नीतिक अनुसार कठिन हृदय के प्रति ) मृदुताका त्याग करनेवाले अर्थात् कठिनतायुक्त ( अत एव उक्त नीति के अनुसार ) समुचित व्यवहार करनेवाले दोनों स्तनोंकी ( कठिन हृदयको साथ विपरीत व्यवहार करनेसे, अथव-ऊर्ध्वमुख होने के कारण ) पराङमुखता (पक्षा०-उदासीनता ) को ही हम जानते हैं। [ इसके कठिन हृदयसे स्वाङ्गभूत सवयव. हारगले ये स्तन भी यदि पराङ्मुख हो गये तो हम तो बाहरी होनेके कारण वदा ( हृदय में ) एवेश ही किस प्रकार पा सकते हैं ? अथवा-इन स्तनोंको अत्युन्नत होनेसे मेरे आलिङ्गन करते समय दमयन्तीके वक्षःस्थलका मिलन नहीं होनेसे मेरे प्रति इन
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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