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________________ 1314 नैषधमहाकाव्यम् / तु अन्तेन इति भावः / द्वयोः लोचनयोः समाहारः इति द्विलोचनी तया द्विलोचन्या नेत्रद्वयेन त्रिलोकीवत् प्रक्रिया / आलीः सखीः, अवलोकते पश्यति, मान्तु मां पुनः, मन्तुमन्तम् अपराधीनम् इव, द्राक् झटिति, क्षणमात्रमित्यर्थः। दृगन्ताणुना दृशः एकमात्रस्य चक्षुषः, न तु द्वयोः, अन्तःशेषभागः, न तु सम्पूर्णभागः, तस्यापि अणुना लेशमात्रेण, कटाक्षलेशेन इत्यर्थः। ईक्षते अवलोकयति, अन्योऽपि लोको यथा अपराधिनं घृणया कटाक्षमात्रेणावलोकयति तद्वदिति निष्कर्षः // 31 // यह (तुमलोगोंकी सखी दमयन्ती ) सखियोंको पूरे ही दोनों नेत्रोंसे देखती है, किन्तु अपराधीके समान मुझको तो एक नेत्रके प्रान्तके अल्पमात्र भाग ( लेशमात्र कटाक्ष ) से एकवार (या-झट-थोड़ा-सा) ही देखती है। [ लोकमें भी अपराधीको घृणापूर्वक नेत्रप्रान्तसे थोड़ा देखा जाता है। यहांपर भी 'प्रिया प्रियपतिको नेत्रप्रान्त ( कटाक्ष ) से तथा सखी आदि स्नेही बान्धवोंको पूर्ण दृष्टि से देखती है। ऐसा सर्वसाधारणका नियम होनेसे नलने दमयन्तीके द्वारा कटाक्षपूर्वक देखना कहकर दमयन्तीका अपने में स्नेहाति शयको सूचित किया है ] // 31 // नालोकते यथेदानी मामियं तेन कल्पये / योऽहं दूत्येऽन या दृष्टः सोऽपि व्यस्मारिषीदृशा // 32 / नेति / इयं दमयन्ती, यथा येन प्रकारेण, इदानीम् अधुना, मां नलम् , न आलोकते न ईक्षते, तेन तादृशानालोकनव्यापारण, कल्पये एवं मन्ये, यत् यः अहं नलः, दूत्ये इन्द्रादीनां दूत्यकाले, अनया भैम्या, दृष्टः पूर्णलोचनद्वयेन अवलोकितः, सोऽपि अहम् , ईदृशा इदानीमेतादृशव्यवहारेण माम् अपश्यन्त्या अनया, व्यस्मा. रिषि विस्मृतः अस्मि / स्मरतेः कर्मणि लुङ् / 'स्यसिचसीयुट-' इत्यादिना सिच इडागमे तस्य चिण्वद्भावे 'अचो ब्णिति' इति वृद्धिः। अविस्मरणे पूर्ववत् सादरं पश्येत् इति भावः // 32 // ___ यह दमयन्ती जिस कारण इस समय मुझे नहीं देखती है, उस कारण मैं कल्पना करता हूँ कि-'दूतकाल में इस दमयन्तीने जिस मुझको देखा है, उसे भी इस व्यवहारसे भूल गयी है। [क्योंकि यदि इन्द्रादिका दूत बनकर मेरे जानेपर जो पूर्ण दृष्टि से देखना नहीं भूलती तो यह अवश्य ही इस समय मुझे पूर्ण दृष्टिसे देखती, किन्तु ऐसा नहीं कर रही है, अत एव ज्ञात होता है कि यह दूतकाल में मुझे पूर्णदृष्टि से देखना भूल गयी है ] // 32 / / रागं दर्शयते सैषा वयस्याः सूनृतामृतैः / / मम त्वमिति वक्त मां मानिनी मौनिनी पुनः / / 33 / / रागमिति / सा उक्तरूपा, एषा प्रिया, सूनृतामृतैः सत्यप्रियवाक्यपीयूपैः / 'सूनृतं प्रिये सत्ये' इत्यमरः / वयस्याः सखीः, रागम् अनुरक्तिम् , स्नेहभावमित्यर्थः, 1. 'न लोकते' इति पाठान्तरम् /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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