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________________ सप्तदशः सर्गः। 1121 विषधेन्द्रस्य मण्डलं राष्ट्रम् , अमलं परिपूर्णप्रकाशं चन्द्रस्य मण्डलं बिम्बमिव संग्रहादठाद् ग्रहणयोगवशारच ग्लापयितुं विनाशयितुं ग्रसितुं च प्राप // 1 // ___ पापी कलि निषधेश्वर (नल ) के निष्पाप ( दोषरहित ) राज्यको इठ (दुराग्रह ) से नष्ट करने के लिए उस प्रकार प्राप्त किया, जिस प्रकार (ज्योतिःशास्त्रके अनुसार पापग्रह होनेसे ) पाप राहु चन्द्रमाके स्वच्छ बिम्बको ग्रहणयोग होनेसे ग्रसित करने के लिए प्राप्त करता है / [ राहु तथा चन्द्रमाकी उपमासे सूचित होता है कि-जिस प्रकार ग्रहणका योग आनेपर राहु परिपूर्ण एवं निर्मल चन्द्रबिम्बको अवश्यमेव मलिन कर देता है, उसे कोई नहीं रोक सकता, किन्तु कुछ समय बाद ही वह चन्द्र राहुमुक्त होकर पुनः विमल कान्तिको पूर्ववत् प्राप्त कर लेता है उसी प्रकार पापी काल नल के निर्मल राज्यको बहुत प्रयत्न करनेपर मी अवश्यमैव दूषित करेगा अर्थात् नल-दमयन्तीको अवश्यमेव पीड़ित करेगा; किन्तु चन्द्र के समान ही नल थोड़े दिनोंके अनन्तर ही कलि-पीडासे मुक्त होकर पुनः अपना राज्य पूर्ववत् प्रासकर दमयन्तीके साथ सुखभोग करेंगे ] // 1 // कियताऽथ च कालेन कालः कलिरुपेयिवान् / भैमीमत रहमानी राजधानी महीभुजः / / 156 / / कियतेति / अथ देवानां सन्निधानात प्रस्थानानन्तरम् , कियता च कालेन किञ्चि स्कालेऽतीते इत्यर्थः / अहंमानी अहङ्कारी, कलिः कालः युगात्मकसमयरूपः पापा. स्मकत्वात् श्यामरूपो वा, भैमीमत्त दमयन्तीपतेः, महीभुजः राज्ञो नलस्य, राजानः धीयन्ते अस्यामिति राजधानी नगरी ताम् , 'करणाधिकरणयोश्च' इत्यधिकरणार्थे ल्युट / उपेयिवान् उपगतः, निपातनात् साधुः॥ 159 // इस ( समीपसे देवों के प्रस्थान करने, अथवा-विघ्न-समूहको पार करने ) के बाद कुछ समयमें (नलको पीडित करनेके विषयमें ) अहङ्कारी तथा समयरूप ( अथवापापात्मक होने कृष्णवर्ण, अथवा-दारुणकर्मा होने से यमतुल्य ) कलि दमयन्तीभर्ता भूपति (नल ) की राजधानीको प्राप्त किया ( राजधानी में पहुंचा ) / [ 'भैमीभर्तुः' तथा 'महीभुजः' इन दो विशेषणोंसे नलसे दमयन्ती तथा पृथ्वीका सम्बन्ध छुड़ाने में कलिका विशेष आग्रह संचित होता है ] // 159 // वेदानुच्चरतां तत्र मुखादाकर्णयन् पदम् / न प्रसारयितुं कालः कालः पदमपारयत् / / 160 / / अथ पुरप्रवेशे विघ्न प्रकारमाह-वेदानिति / तत्र राजधान्याम् , वेदान् श्रुती:, उभरताम् उच्चारयताम., अधीयानानां श्रोत्रियाणाम् इत्यर्थः / मुखात् वदनात् , पदं मन्त्रचतुर्थाशापराख्यं पदजातम् , आकर्णयन् शृण्वन् , कालः समयात्मकः पापात्मको 1. कियतापि' इति पाठान्तरम्। 2. 'वेदानुद्धरताम्' इति पाठान्तरम् /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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