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________________ 1120 नैषधमहाकाव्यम् / द्वापरैकपरीवारः कलिमत्सरमूच्छितः / नलनिग्राहिणीं यात्रां जग्राह पहिलः किल // 157 / / - द्वापरेति / मत्सरमूञ्छितः मूर्चिछतमत्सरः, प्रवृद्धनलशुभद्वेष इत्यर्थः / नलनिर्या तनाय दृढसङ्कल्प इति यावत् / आहितान्यादिषु द्रष्टव्यः। अत एव ग्रहिलः आग्रहवान् , पिच्छादित्वात् मत्वर्थीय इलचप्रत्ययः। कलिः चतुर्थयुगम् , 'द्वापरस्तृतीय युगम् एव, एकः केवलः, परीवारः परिजनः यस्य तादृशः, द्वापरमात्रसहायः सन्निस्यर्थः / नलनिग्राहिणी नलनिग्रहार्थाम् इत्यर्थः / यात्रां गमनम्, जग्राह स्वीचकार, किल खलु // 157 // मत्सर ( नल-विषयक द्वेष ) से मूच्छित (मृततुल्य, अथवा-(नलके प्रति ) बढ़े हुए मत्सरवाला), आग्रही ( इन्द्रादिके बहुत समझाने तथा मना करनेपर भी अपने दुराग्रहको नहीं छोड़नेवाला अर्थात् महाहठी) तथा (काम क्रोधादि अपने सैनिकोंको लौटानेसे ) द्वापरमात्र के साथ कलि नलको निगृहीत करनेवाली यात्राको स्वीकार किया अर्थात् नलको जीतने के लिए केवल द्वापरको अपने साथमें लेकर चल पड़ा // 157 / / नलेष्टापूर्तसम्पूर्तेर्दूरदुर्गानमुं प्रति / / निषेधन निषधान् गन्तुं विघ्नः सञ्जघटे घनः / / 158 / / ___ नलेति / नलस्य वैरसेनेः, इष्टापूर्ताभ्यां क्रतुखातादिधर्मकर्मभ्याम् / 'अथ ऋतु. कर्मेष्टं पूर्त खातादिकमणि' इत्यमरः। सम्पूर्तः सम्यक् पूर्णत्वात् , बहुधर्मानुष्ठान. चिह्नव्याप्तत्वादित्यर्थः / अमुं पापरूपं कलिं प्रति, दूरमत्यर्थ, दुःखेन गच्छन्ति एन्विति दुर्गाः / 'सुदुरोरधिकरणे' इति डप्रत्ययः / तान् दूरदुर्गान् अतिदुर्गमान् , निषधान् देशान् , गन्तुं प्रयातुम, निषेधन निवारयन् , गमनं प्रतिबध्ननिवेत्यर्थः / घनः निर न्तरः, विघ्नः प्रत्यूहः, सञ्जघटे. वक्ष्यमाणरीत्या घटितवानित्यर्थः / धर्मगुप्ततया निष.' धदेशाः कलिना दुष्प्रवेशा बभूवुरिति निष्कर्षः // 158 // नलके इष्टपूर्त ( यज्ञ तथा तडागादि धर्मकार्य) की सम्पूर्णताके कारण इस (पापी कलि ) के प्रति अत्यन्त दुर्गम निषध देशको जाने के लिए निषेध करता हुआ महान् ( वक्ष्यमाण (17160-204 ) बहुत-मा) विघ्न हुआ। ( अथ च-जलपूर्ण होनेसे दूर देश जाने के लिए मेघ विघ्नरूप होकर मना करने लगा)। [ पुण्यश्लोक नलके धर्मकार्यों के कारण कलिका वहां पहुंचने में बहुत कठिनाई हुई ] // 158 // ( मण्डलं निषधेन्द्रस्य चन्द्रस्येवामलं कलिः। प्राप भ्लापयितुं पापः स्वर्भानुरिव संग्रहात् // 1 // ) मण्डलमिति / पापः कलिः पापग्रहमध्ये गणितत्वात्पापः स्वर्भानुरिवामलं निष्पापं 1. 'स ग्रहात्' इति पाठान्तरम् / 2. अयं श्लोकः 'प्रकाश'कृता नारायणभट्टेन व्याख्यात इति मयाऽत्र स्थापितः /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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