SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 18
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वादशः सर्गः। के श्वेत वर्ण होने ) से इस ( पाण्ड्य ) राजा की मलिनता ( दमयन्तीके नहीं मिलनेसे उदा. सीनता ) स्पष्ट हो गयी; क्योंकि श्वेतमें कालिमा स्पष्ट मालूम होती है। [ उस दासीके उपहास करने पर और सभासदोंके हंसने पर वह पाण्ड्य राजा अधिक उदास हो गया] // 22 // ततोऽनु देव्या जगदे महेन्द्रभूपुरन्दरे' सा जगदेकवन्द्यया / तदार्जवावर्जिततर्जनीकया जनी कयाचित् परचित्स्वरूपया // 23 // ततोऽन्विति / ततोऽनु तदनन्तरं, महेन्द्रभूपुरन्दरे महेन्द्रपर्वताधीश्वरे विषये, तं लक्षीकृत्येत्यर्थः, तदार्जवेन तस्य महेन्द्राधिपस्य, आर्जवेन सरलतया, आवर्जिता नमिता, तर्जनी प्रदेशिनी यया तया ताहकतर्जनीकया, तम् अङ्गुल्या निर्दिश्येत्यर्थः, 'नयतश्च' इति कप , कयाचित् अनिर्वाच्यया, परचित्स्वरूपया परज्योतिरात्मिकया, जगदेकवन्द्यया देव्या सरस्वत्या, सा जनी वधू, जगदे गदिता // 23 // इसके बाद संसार में एक ( मुख्य ) वन्दनीया, अनिर्वचनीया, उत्तम ज्ञान (या ज्योतिः) स्वरूपा ( सरस्वती ) देवी महेन्द्रभूमिके राजाके विषयमें (पाठा०-को लक्षित कर ) उसकी ओर तर्जनी अङ्गुलिसे सङ्केत कर उस ( दमयन्ती ) से बोली // 23 / / स्वयंवरोद्वाहमहे वृणीष्व हे ! महेन्द्रशैलस्य महेन्द्रमागतम / कलिङ्गाजानां स्वकुचद्वयश्रिया कलिं गजानां शृणु तत्र कुम्भयोः // 24 // स्वयंवरोद्वाहमहे इति / हे ! इति सम्बोधने, 'अथ सम्बोधनार्थकाः / स्युः पाट प्याडङ्ग हे है भोः' इत्यमरः, हे भैमि ! स्वयंवरेण स्वयंवरकर्मणा, य उद्वाहमहो विवाहोत्सवः तस्मिन् , आगतं महेन्द्रशैलस्य महेन्द्रपर्वतस्य, महेन्द्रम् अधीश, वृणीष्वः तत्र महेन्द्रशैले, कलिङ्गजानां कलिङ्गदेशोद्भवानां, गजानां, कुम्भयोः, स्वस्थ आत्मनः कुचद्वयश्रिया सह कलिं कलह, तव कुचद्वयम् अधिकं पीनोन्नतं गजानां कुम्भद्वयं वा अधिकं पोनोन्नतमिति मीमांसार्थमेव इति भावः, शृणुः तदेशस्य गजप्रायत्वात् कुचकुम्भयोः करिकुम्भयोश्च साम्यं व्यक्तीभविष्यतीति निष्कर्षः // 24 // हे दमयन्ति ! स्वयंवर द्वारा किये जानेवाले विवाहरूप यज्ञमें आये हुए, महेन्द्रपर्वतके राजाको वरण करो, और वहां कलिङ्ग देशमें उत्पन्न हाथियों के कुम्भद्वय का अपने स्तनद्वयकी शोभासे ( होनेवाले ) विवादको सुनो। [ इस महेन्द्र पर्वतके राजाके यहां कलिङ्ग देशोत्पन्न हाथी हैं, जिनका कुम्भद्वय तुम्हारे स्तनद्वय का शोभा पाना चाहता है, परन्तु पाता नहीं, विवाहके समान इस विषय को तुम इस महेन्द्राधीशका वरण कर अच्छी तरह देख सकोगी, अतएव इसे वरण करो ] // 24 // अयं किलायात इतीरिपोरवाग्भयादयादस्य रिपुर्वथा वनम् | श्रुतास्तदुत्स्वापगिरस्तदक्षराः पठद्भिरत्रासि शुकैर्वनेऽपि सः // 25 // 1. 'पुरन्दरम्' इति पा०। 45 नै० उ०
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy