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________________ 714 नैषधमहाकाव्यम् / स्वर्गमें देवत्व को प्राप्त वे वैन्य' इस राजाके भयङ्कर संग्रामको देखने के लिये अन्य देवोंके साथ आकर इस राजाके विशालकाय हाथियों को चलता-फिरता पर्वत समझ कर 'ये पर्वत फिर घूमने-फिरने लगे, अतः इन्हें फिर धनुष्कोटिसे मुझे फेंकना चाहिये' ऐसा विचार करने लगे। यह पाण्डय राजा बड़ा भयङ्कर युद्ध करता है तथा इसके हाथी पर्वतवत् विशालकाय एवं अगणित हैं; अतएव ऐसे शुरवीर का वरण करो ] // 20 // शशंस दासीङ्गितवित् विदर्भजामितो ननु स्वामिनि ! पश्य कौतुकम् | यदेष सौधाग्रनटे पटाञ्चले चलेऽपि काकस्य पदार्पणग्रहः // 21 // शशंसेति / इङ्गितवित् दमयन्त्यभिप्रायज्ञा, दासी किङ्करी, विदर्भजां दमयन्ती, शशंस बभाण; किमिति ? ननु हे स्वामिनि ! इतः अस्यां दिशि, कौतुकम् आश्चर्य, पश्य, किं तत् ? तदाह, सौधाप्रे सुधाधवलितगृहोर्ध्वदेशे वर्तमाने, नटे चञ्चलस्वात् नर्तकतुल्ये, अत एव चले वायुवशात् चलत्यपि, पटाञ्चके, ध्वजाञ्चले, काकस्य एष पदार्पणग्रहः पादन्यासाभिनिवेशः, इति यत् तत् कौतुकमिति पूर्वणान्वयः / एतेन भैम्याः तस्मिन् पाण्डये महान् अनादरः इति सख्या सूचितम् // 21 // (दमयन्ती) के अभिप्रायको जाननेवाली दासीने दमयन्तीसे कहा-हे स्वामिनि (दमयन्ति ) ! 'महल के ऊपर नटरूप चञ्चल ( ध्वजा के ) वस्त्रके आगे कौवा पैर रखनेका हठ करता है' यह कौतुक देखो। [दासीने स्वामिनी दमयन्तीके अभिप्रायको समझकर अन्योक्तिसे कहा कि-सुधाधवलित महल के ऊपर ध्वजाके वस्त्रके वायुचञ्चल अग्रिम भागमें कौवेके पैर रखने के समान यह नीच राजा दूसरे अर्थात् नल को चाहने वाली तुम्हें शृङ्गार चेष्टाओंसे प्राप्त करने का दुराग्रह रखता है, अत एव कौतुक विषय है, इसे तुम देखो। इस प्रकार कह कर सरस्वती देवीके द्वारा किये जानेवाले राजाके वर्णनके बीचमें ही रोक दिया / उस राजा को 'काक' बतलाकर दासीने उसमें अत्यन्त अनादर प्रकट किया ] // 21 // ततस्तदप्रस्तुतभाषितोत्थितैः सदस्तदश्वेति हसैः सदासदाम् / स्फुटाऽजनि म्लानिरतोऽस्य भूपतेः सिते हि जायेत शितेः सुलक्षता / / तत इति / ततोऽनन्तरं, तदप्रस्तुतभाषितेन उस्थितः सदासदां सभासदां, हससिः , 'खनहसोर्वा' इति विकल्पात् अ-प्रत्ययः, तत् सदः संसत् , सभा इत्यर्थः, अश्वेति सितीकृतं, शुभ्रीकृतम् इति यावत् ; वितिधातोय॑न्तात् कर्मणि लुङ् अतः सदःश्वैस्यात् हेतोः, अस्य पाण्डवस्य, भूपतेः म्लानिः विवर्णता, स्फुटा व्यक्ता, अजनि जाता, कर्तरि लुङ् 'दीपजन-'इत्यादिना विकल्पाविण-प्रत्ययः, तथा हि सिते धवलिनि, शितेन लिम्नः 'अशितिः शितिकृष्णे च कालं नीलञ्च मेचकम्' इति हलायुधः, सुलक्षता सुग्रहत्वं, जायेत हि स्फुटं दृश्यते इत्यर्थः / अर्थान्तरन्यासोऽलङ्कारः // 22 // ___ इस ( दासीके वैसा ( 12 // 21 ) उपहास पूर्वक बोलने ) के बाद उस ( दासी) के अप्रासंगिक बोलनेसे उत्पन्न, सदस्योंकी हंसीसे वह समा श्वेत वर्णवाली हो गयी, इस ( सभा
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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