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________________ चतुर्दशः सर्गः। 843 शृङ्गारं शृङ्गाररसम् , अधीश्वरश्रीः अधीश्वरस्य हृदयेश्वरस्य नलस्य, श्रीः सौन्दर्यम् , आलिङ्गत् दोलनजनितपतनभयनिवारणार्थमाश्लिषत् , प्रबलतया दोदुल्यमानदोला धिरूढम् अत एव पतनशङ्कया भीतं कमपि पुमांसं पार्श्वस्थः नरो वा नारी वा यः कोऽपि यथा अवलम्बनं दत्वा स्थिरीकरोति तद्वत् इति भावः। नलसौन्दयं वरणायैव हृदयस्य स्थैर्य सम्पाद्य प्रवृत्तिनिवृत्तिसङ्घर्षजनितं दोलनं निवारयामासेति समु. दितार्थः / अत्र भैमीहृदयं दोलासनं, शृङ्गाररसो राजा, नल एव सन्तापनिवारकत्वात् छत्रं, दोलासनान्दोलनाथं स्थितौ लज्जाकामी, एतेन नलाधिष्ठिते हृदि भैमी शृङ्गाररसस्य परां कोटिम् आरूढा इति निष्कर्षः // 25 // ___ लज्जा तथा कामदेवके द्वारा झूलेके विलासको प्राप्त करते हुए तथा चन्द्रकुल अर्थात् चन्द्रकुलोत्पन्न नलरूप छत्रको धारण किये हुए उस (दमयन्ती ) के हृदयमें आश्रयकर स्थित शृङ्गार रसके स्वामी ( नल ) की लक्ष्मी अर्थात् सुन्दरता ( अथवा-अधिक सुन्दरता, अथवा-किसी अन्य राजाकी सुन्दरता ) ने आलिङ्गित (ग्रहण ) किया। [ जिस प्रकार अत्यन्त हिलते झूलेपर चढ़े हुए पुरुषको गिरनेके भयसे कोई स्त्री या पुरुष पकड़कर उसे स्थिर करता है उसी प्रकार यहां समझना चाहिये / यहां पर शृङ्गार रसको राजा, दमयन्तीके हृदयको झूलेका आसन (बैठनेका काष्ठविशेष पटा आदि ), सन्तापनिवारक होनेसे नलको छत्र, लज्जा तथा कामदेवको झूले पर आरूढ़ व्यक्ति समझना चाहिये / प्रथम अर्थमें-लज्जा एवं कामदेवसे अस्थिर चित्तवाली दमयन्तीको देखकर खिन्न नलने पहले विप्रलम्भ शृङ्गारको प्राप्त किया, तदनन्तर दमयन्तीने भी नलको वैसा देखकर उनकी शोभाके स्वीकार करनेसे वैसी ही हो गयी। अन्यपक्षमें-उस दमयन्तीका भाव मिश्रित शृङ्गार रस राजा नलके समान बढ़ गया / जिस प्रकार झूले पर चढ़ी हुई स्त्रियां गिरनेके भयसे पतिका आलिङ्गन करती हैं ] // 25 // करः सजा सज्जतरस्तदीयः प्रियोन्मुखीभूय पुनर्व्यरंसीत् / तदाननस्या पथं ययौ च प्रत्याययौ चातिचलः कटाक्षः / / 26 // कर इति / स्रजा वरणमाल्येन करणेन, सज्जतरः अतिशयेन सम्भृतः, अत्यर्थं शोभित इत्यर्थः, तदीयो दमयन्तीसम्बन्धी, करः प्रियस्य नलस्य, उन्मुखीभूय अभिमुखीभूय, पुनः व्यरंसीत् विरराम, रमेलुंङि व्याङपरिभ्यो रमः' इति परस्मैपदं, 'यमरमनमातां सकच' इति सगिडागमो, 'अस्ति सिचोऽपृक्ते' इतीडागमे 'इट ईटि' इति सलोपे च सवर्णदीर्घः / तथा अतिचलाः अत्यन्तचञ्चलः; कटाक्षः तदाननस्य नलमुखस्य, अर्द्धः पन्था इति विशेषणसमासे समासान्तः / 'अद्ध नपुंसकम्' इति नैकदेशी समासः पथः समविभागे प्रमाणाभावात् / तम् अर्द्धपथं, ययौ च प्रत्याययो च प्रत्यावृत्तश्च, उभयत्र लज्जयेति भावः // 26 // वरणमालासे शोभित (नलके कण्ठमें वरण-माला डालने के लिए तैयार अर्थात् ऊपर 53 नै० उ०
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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