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________________ प्रथमः सर्गः। 60 युक्ती प्रियाओंमें दोनों चोंचों तथा दोनों चरणों के कपट से (क्रमशः) दो पत्रयुक्त तथा सुवर्णमय होनेसे भाश्चर्यकारक ) पासमें ( नल के समीपमें, या-क्रीड़ातडाग के समीपमें ) विचरते ( धीरे धीरे चलते ) हुए सुवर्णमय हंसको देखा। [बाजा प्रियाभों में अल्पकाम होनेसे कामोस्पादित भनुरागरूप वृक्षका अडर केवल दो पत्तों वाला था, मिसे बह दो चञ्चुपुटके कपटसे धारण करता था, तथा सुरत समर्थ युवती प्रियाओं में प्रचुर काम होनेसे कामोत्पादित अनुरागरूप वृक्षका अङ्कर पकवयुक्त था, जिसे वह पल्लवस्थानीय चरणाङ्गुलिके कपटसे धारण कर रहा था। यद्यपि इस तडागकी तुभना समुद्रसे करने के कारण इसे पल्लव (छोटा बहाशय)कहना उचित नहीं है, तथापि नलके कीमतगकी मावनाते इसे 'पल्ला' कहा गया है। भयवा-विस्तारके कारण समुद्रतुप तथा विनश्वर होनेसे पल्वछतुल्य शरीरमें बिहार करते हुए रमणार्थिनी हंसी शक्तिके कहनाद (अव्यक्त ध्वनि ) में आदरयुक्त हिरण्मय परमात्माको जैसे कोई योगी जानता ( देखता ) है, वैसे हंसको नकने देखा ] // 117-118 // महीमहेन्द्रस्तमवेक्ष्य स क्षणं शकुन्तमेकान्तमनोविनोदिनम् / प्रियावियोगाद्विधुरोऽपि निर्भरं कुतूहलाक्रान्तमना मनागभूत् / / 116 / / महीति / महीमहेन्द्रो भूदेवेन्द्रः स नलः एकान्तं नितान्तं मनो विनोदयतीति तथोक तं शकुन्तं पविणं षणमवेषय प्रियावियोगानिर्भरमतिमा विधुरो दुःस्थोऽपि मनागीषकुतूहलाकान्तमनाः कौतुकितचित्तोऽभूत् , गृहीतकामोऽभूदिश्यर्थः 119 // प्रिया [दमयन्ती ] के विरहसे अत्यन्त दुखी भी दे पृथ्वीपति नल निश्चितरूपसे मनोहर उस पक्षी (हंस)को थोड़ी देर देखकर ( उसे ग्रहण करने के लिर) कुछ सौतुक युक्त हो गये अर्थात उसे पकड़नेकी इच्छा किये // 119 // अवश्यभव्येष्वनवग्रहमहा यया दिशा धावति वेधसः स्पृहा / तृणेन वात्येव तयाऽनुगम्यते जनस्य चित्तेन भृशावशात्मना / / 120 // कथमीरशे चापल्ये प्रवृत्तिरस्य धीरोदात्तस्येत्याशका मात्र जन्तोः स्वातम्यं किन्तु भाव्यर्थानुसारिगी विधातुरिच्छेव तथा प्रेरखतीत्शाह-अवश्येति / अवश्यभः ज्येष्ववश्य भाष्यर्थेषु विषये 'भम्यगेयादिना कहि याप्रत्ययान्तो निदाता, 'लुम्पे. दवश्यमः कृत्ये' इत्यवश्यमो मकारलोपः, अनवप्रहमहा अप्रविधिनिबन्धा निर। कुशामिनिवेशेति यावत् , 'ग्रहोऽनुग्रह निर्बन्धप्रहगेषु रमोसम' इलि विश्वः / वेध. सः स्पृहा विधातरिच्छा यया दिशा धावति येनाका प्रवर्तते तयैव हिशा ऋशा. वशारमनाऽस्यन्तपरतन्त्रश्वमावेन जनस्य चिन तृगेन्द्र लामा वाट नमूह इद, 'पाशादिभ्यो यः' अनुगम्यते, वेक्षतः स्पृहा कम्म् // 120 / (अत्यन्त कामपीडित नलको हंस पकड़ने का गौतुक कैसे मा 1 या नलकी सेनाको
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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